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साहित्य व संस्कृति (संग्रामी लहर फरवरी २०१९)

साहित्य व संस्कृति (संग्रामी लहर फरवरी २०१९)

कहानी
धुंध
– डा. नीरज वर्मा
सीरिया पर अमेरिकी हमले की चेतावनी …. बाजार औंधे मुंह गिर गया… प्राइवेट चैनलों के लिए दिन भर का मसाला… सटोरियों के चेहरों पर हवाईयां… सेंसेक्स और निफ्टी में ऐतिहासिक गिरावट… कड़े फैसले लेने के लिए आर.बी.आई. की बैठक…। इन सब से बेखबर शहर के कोने में कुछ तमाशबीन मजमा लगाए पांच वर्ष के पेट को रस्सी पर नचा रहे थे। वहीं मौसम के चाबुक से अनजान अभिजात्य वर्ग घर आफिस कार जहां जैसी सुविधा मिली एयर कंडीशंड का आनंद ले रहा था, लेकिन लल्लन बाबू शरीर पर घड़े जैसा पेट लटकाए ऊंट की भांति दौड़ रहे थे। उन्नीस सौ सत्तासी माडल की प्रिया बजाज स्कूटर में खुद को लादे लल्लन बाबू जब न्यू वेल्थ इंश्योरेंश प्रा.लि. कंपनी के गेट पर रुके तो उनकी आँखें उदास थीं। लल्लन बाबू अपनी स्कूटर खड़ी कर ही रहे थे कि, एक मरघिन्ना (मरियल) सा वर्दीधारी लगभग लपक कर स्कूटर थाम लिया था। पहले तो लल्लन बाबू थोड़ा सकपकाए पर वर्षों से भूखा लगने वाले वर्दीधारी ने जब स्कूटर पार्क करके उसकी चाभी उन्हें थमाई तो बात समझ में आ गई थी। वैसे तो उनकी गाड़ी बारहों मास के घाम पानी की आदी थी। लल्लन बाबू उसे कहीं भी लावारिस छोडऩे में तनिक संकोच नहीं करते थे। आज वर्दीधारी ने स्कूटर पार्क करने के बाद जब लल्लन बाबू को सर कह के संबोधित किया तो भीतर ही भीतर गर्वानुभूति हुई थी। कम्पनी के आलिशान आफिस के दरवाजे पर पहुंचे ही थे कि दरवाजा स्वयंमेव सरक कर खुल गया था। जिसके दोनों ओर मुस्तैद वर्दीधारी गनमैन अपनी सेवा देते तत्पर खड़े थे। आफिस में आलिशान हालनुमा कक्ष की दीवारें आधुनिक चित्रों से सुसज्जित थीं, जिस पर सुनाम धन्य (प्रसिद्ध) चित्रकारों के आधुनिक समझ वाले चित्र टंगे थे। चित्रों को देख कर कुछ समझ तो नहीं आ रहा था पर स्वर्णिम रंग के कीमती फ्रेम में मढ़े होने की वजह से उनके कीमती होने का आभास हो रहा था। सेंट्रलाइज्ड एअर कंडिशंड वाले हाल में पालिफोनिक साऊंड वाले संगीत की मधुर तरंग वातावरण में घुल रही थी। हाल के मध्य में रखे सोफे पर बैठे सोफेस्टिर्कटेड से दिखने वाले कुछ सज्जन चमकदार पन्नोंवाली फाइल में सिर घुमाए कुछ गुणा भाग करने में मगन थे। दीवार पर टंगे बावन इंच की एल.ई.डी. स्क्रीन पर कंपनी के आकर्षक इन्वेस्टमेंट पालिसिज पावर प्वाईंट के माध्यम से डिस्प्ले किये जा रहे थे। साथ ही साथ बीच बीच में आकर्षक ब्जाय दरों पर मिलने  वाले कर्ज का ब्योरा भी था। बैंक के वातावरण में सपना तैर रहा था, पर लल्लन बाबू के भीतर तूफान उमड़ रहा था जो उनके चेहरे पर बूंद बन कर उग आया था। उनके भीतर हो रहे उमड़-घुमड़ के ऊपर बाहरी वातावरण का कुछ खास प्रभाव नहीं था। जब मन बेचैन हो तो बाहरी राग रोगन के प्रति उदासीनता स्वाभाविक ही है।
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रोहन जब दर्द से छटपटाता है तो बाप का कठकरेज दिल भी पानी हो जाता है। दो महीना का था तब से गोद में घुस कर सो रहा है। कभी-कभी रोहन की मां-व्यंग भी करती थी… ‘अबही बड़ा लाड़ दिखा रहे हैं, होने दीजिए बड़ा तब बाप कहां हैं पूछेगा भी नहीं।’
‘चल चुप रह, सबको अपना भाई ही समझती है’… लल्लन बाबू पिनक जाया करते थे। खुशी के दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे। देखते देखते रोहन छ: फुट्टा जवान हो गया था। फुटबाल का ऐसा खिलाड़ी कि मैदान में अच्छे अच्छों को पानी पिला कर रख दे। एक से बढक़र एक गोल कीपर उसका सामना करने से डरते थे। तीखे नाक नक्श वाला गोरा चिट्टा रोहन उस दिन घर आया तो दाहिने पैर की एड़ी दर्द से नीली पड़ी हुई थी। लल्लन बाबू अपनी छोटी सी सिलाई की दुकान बढ़ाकर जब घर पहुंचे तो बेटे को दर्द से छटपटाता देख बिलबिला गए थे। रोहन की मां ने हल्दी और प्याज का लेप लगाया भी पर दर्द था कि, कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। रात थोड़ा ज्यादा पसर गई थी, लल्लन बाबू को कुछ समझ नहीं आ रहा था। बहुत जोर मशक्कत के बाद राजवाड़े कम्पाउंडर के घर से दर्द निवारक दवाई ब्रुफेन मिली। रोहन की मां ने तो जि़द मचा दी थी…. ‘जवान लडक़ा है दस जन दीदा गड़ाए रहते हैं, कुछ नई सब नजर गुजर का मामला है।’ लल्लन बाबू को वैसे तो इन सब बातों पर तनिक भी भरोसा नहीं था पर बेटे का दर्द देख कर कुछ भी करने को तैयार थे।
उस दिन घोर उमस के बाद जाने कहां से बादलों का रैला आ गया था। बिजली की गरज के साथ वो झमाझम बरसात मानों अबकी बरसे फिर मौैका मिले ना मिले। अचानक उठी आंधी ने पूरे कस्बे को अंधेरे में डुबो दिया था। घुप्प अंधेरे में खेत की मेड़ लांघते फलांगते लल्लन बाबू जब संपत बैगा के घर पहुंचे तो कीचड़ से लथपथ हो गए थे। एक हाथ को दूसरा हाथ न दिखाई देने वाले अंधेरे में छुही से पुती हुई संपत बैगा की झोपड़ी दरिद्र भारत का प्रतिनिधित्व कर रही थी। आगे की ओर झुकी झोपड़ी को देखकर प्रतीत होता था मानो झोपड़ी ने अपनी जिंदगी जी ली है, आंधी पानी के इस झंझावात में बस संपत के मोह में खड़ी है वर्ना कब की ढह जाती।
‘संपत… ओ संपत’ लल्लन बाबू लगभग बीस मिनट तक थकी और मरियायी आवाज से चिल्लाए तब कहीं जाकर लडख़ड़ाता हुआ संपत निकला था। चुरमुराती आवाज के साथ जब लकड़ी का दरवाजा खुला तो सामने के दालान में रखी ढिबरी की लडख़ड़ाती रोशनी भी बाहर निकल आई थी। ढिबरी की मरियायी और लप-लपाती रोशनी में संपत की हिलती परछांई देखकर लगता था, मानों कंकाल चला आ रहा हो।
‘अरे लल्लन भइया आप… गरीब को झोपड़ी धन्य हो गई’ लडख़ड़ाती आवाज के साथ हिलता डुलता संपत कीचड़ सने लल्लन बाबू के पैरों पर लगभग लोट गया था। उसके मुंह में महुआ की तीक्ष्ण गंध उड़ रही थी। इससे पहले लल्लन बाबू कुछ बोल पाते संपत उन्हें लगभग खींचते हुए उस स्थान पर ले गया था जहां पुनिया के साथ उसकी महफिल सजी हुई थी। छोटे-छोटे दो पाऊच में रखे दारू को गिलास में भरते हुए संपत किाद पर अड़ गया था… ‘‘भइया सही समय पर आए हैं। गरीब आदमी के पास आपकी सेवा के लिए कुछ और तो है नही कम से कम एक घूंट तो पीना ही पड़ेगा।’’ थोड़ा ना-नुकुर के बाद लल्लन बाबू के दुख ने दारू का सहारा ले ही लिया था।
महुआ भीतर गया तो लल्लन बाबू का दुख तरल हो कर बह निकला था… ‘‘एक ही लडक़ा है सम्पत भाई घर से लेकर बाहर वालों तक की नजर लगी रहती है।’’
‘‘लडक़ा है भी लाखों में एक, देखने में गोरा चिट्टा तो है ही व्यवहार का भी हीरा है। कल ही तो मोड़ पर मिला था। खुद ही झुक कर प्रणाम किया।’’
‘‘जाने किसकी नजर लग गई है, संपत, जब से घर आया है दर्द से तड़प रहा है। इत्ती रात को कौन डाक्टर मिलेगा? बहुत मुश्किल से राजवाड़े कम्पोटर का दरवाजा खुलवा कर दवाई लाए हैं। अब तुम्हें का बताएं खिस्से में कउड़ी भी नहीं हैं। तुम्हारे भतीजे की जिंदगी तुम्हारे हाथ में है। दीन दुनिया देख कर डर लगता है। जाने कईसी कईसी बीमारी चली है…।’’ लल्लन बाबू के दुख से संपत भीतर तक भींग गया था।
‘‘कौन मां की… मैं भी तो देखूं किसमें इतना दम है?’’ लल्लन बाबू के साथ जाने की तत्परता में संपत लडख़ड़ा कर गिरते-गिरते बचा था। फिर जाने क्या हुआ कुछ विचित्र सा मंत्र बुद-बुदाता हुआ सिर को अजीब तरीके से झटका देकर एक पुडिय़ा में चावल के कुछ दानों को अभिमंत्रित किया… ‘‘लीजिए भइया भतीजा जिस खटिया पर सोता है उसके चारों पांव के नीचे दबा दीजिएगा। भोले नाथ की कसम कैसी भी डंकनी, शंखनी, भूतनी, पिशाचनी होगी भतीजा के पास तक फटकने की हिम्मत नहीं कर पाएगी। रात भर में आराम न हुआ तो संपत अपना सर थाली में ले कर आपके दरवाजे पर भेंट करने आएगा।’’
संपत की झाड़-फूंक, राजवाड़े की दर्द निवारक दवाई, मंदिर वाली चाची की ताबीज, किसी ने रोहन का दर्द कम नहीं किया। जांच की रिपोर्ट जब बांबे से आयी तो लल्लन बाबू के पैर के नीचे से जमीन खिसक गई थी। रोहन को डाक्टर ने ऐसा रोग बताया था जिसका समय पर इलाज नहीं कराया गया तो लडक़े का पैर काटने तक की नौबत आ जाएगी।
लल्लन बाबू तो एक दम टूट गए थे.. एक ही लडक़ा है… खुदा न खास्ता कहीं लडक़े का पैर काटने की नौबत आ गई तो… भविष्य… हाथ में कुछ खास है भी नहीं। थोड़ा बहुत जो जमा पूंजी है अगर इलाज में ही खर्च हो गई तो… रोहन की पढ़ाई का क्या होगा? ढेरों प्रश्न लल्लन बाबू को भीतर से टुकड़े-टुकड़े कर रहे थे।
पुरूष स्त्री को कितना भी दोयम दर्जे का समझे जब स्वयं टूटता है तो स्त्री ही खड़ी मिलती है, जो जीवन की डगमगाती नैया को पार लगाती है।
‘‘काहे ला चिंता, करते हैं रोहन के बाबू जी आदमी पईसा आड़ले-भीड़ल ला ना संभालता है।’’
‘‘सो तो ठीकई कह रही हो पर थोड़ा बहुत जो है वो भी अगर खतम हो जाएगा तो बबुआ की पढ़ाई कैसे होगी। सोचे रहे कहीं कुछ अच्छा हो हुआ गया तो एडमिशन के लिये बाहर भेज देंगे।’’
‘‘जान है तो जहान है….. जाने चली जाएगी तो पइसे रह कर तो का होगा। दीवार पर टंगे झोले में से एक चमकीला सा बांड पेपर थमाते हुए रोहन की मां ने लल्लन बाबू को ठेलते हुए कहा था, लीजिए बाबू के इलाज भर तो हो ही जाएगा।’’
बाजार जब वर्तमान को लीलने के लिए मुंह फाड़े खड़ा है तब भविष्य के टेढे-मेढ़े रास्ते पर चलने के लिए आदमी पेट काट कर कुछ न कुछ बचाता ही है। रोहन की मां ने भी आमदनी के सूखाड़ में से थोड़ा-थोड़ा अलग निकाल कर रखा था।
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सेन्ट्रलाईज्ड एयर कन्डिशन्ड हाल में भव्यता के सारे उपक्रम विद्यमान थे। रिसेप्शनिश्ट लैपटाप पर सिर झुकाए काफी व्यस्त नजर आ रही थी। चुस्त लाल टाप में उसका गौरवर्ण उभर कर वातावरण में घुल रहा था। हालाकि हाल में लल्लन बाबू के अलावा चार-पांच लोग ही विद्यमान थे। जिनमें से दो एक लैपटाप में सिर झुकाए बाजार के गिरते तेवर से हलकान हो रहे थे।
‘‘मैडम जी हमको अपना पैसा निकलवाना है…’’ लल्लन बाबू के चेहरे पर पीड़ा उभर आई थी।  
‘‘यस सर प्लीज क्या कहा आपने?’’ … युवती की वाणी में बला की कोमलता थी।
‘‘जी अपना पैसा निकलवाना है।’’
‘‘ओ…. यस बट सॉरी हमारे सेल्स एक्जिक्युटिव तो अभी फील्ड में हैं। आप वहां सोफे पर बैठिए मैं उनको काल कर देती हूं थोड़ी देर में आ जाएंगे।’’
‘‘मैडम थोड़ा जल्दी हो जाता तो….।’’
‘‘यस सर आइ नो बट यू विल हैव टु वेट फार सम टाइम प्लीज’’ लल्लन बाबू अटेंड करते वक्त युवती की इयररिंग मोहक अंदाका में हिली थी जिसकी चमक से पल भर के लिए वो भीतर तक हिल गए थे।
निकले हुए पेट और देह से उड़ते गंध के साथ लल्लन बाबू जब रिसेप्शन लाउंज में बैठने गए तो वहां पर पहले से बैठे आदमी ने थोड़ी नाक चढ़ाई थी जिससे अनजान लल्लन बाबू बैठे ही थे कि, परिचारिका ने पानी के लिए पूछ लिया था। लगभग दस मिनट के तनाव के बाद उनको ऐसे स्थान पर बैठने के लिए रिक्वेस्ट किया गया जहां उनके अलावा सिर्फ कम्पनी का सेल्स एक्जिक्यूटिव ही था।
‘‘यस सर बताइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?’’
‘‘जी मुझे अपना पैसा निकलवाना है।’’
‘‘जरूर क्यों नहीं?’’ ‘‘आपका अपना पैसा है लेकिन आप पैसा निकालना क्यों चाहते हैं?’’ ‘‘आप अपना बांड पेपर जमा करा दीजिए…… अपका पैसा रिसायकल हो कर आपको नया बांड पेपर मिल जाएगा।’’
‘‘लेकिन मुझे पैसा चाहिए मेरे……’’ इससे पहले लल्लन बाबू अपनी बात पूरी कर पाते सेल्स एक्जिक्यिुटिव ने जाल फेंका था।
‘‘सर हमारी कंपनी ने एक दम फ्लेक्सिबल प्लान लांच किया है।’’ ‘‘हम करेंगे आपके जमा धन का दो सौ पचास गुना रिस्क कव्हर जो कि एक्सिडेंन्टल केस में दुगना हो जाएगा। आप अपनी सुविधा अनुसार पालिसी का प्रीमियम और समय कम कर सकते हैं। अब हमारी कम्पनी पेपर लैस प्रोग्रामिंग कर रही है। आपको कुछ नहीं बस एक हस्ताक्षर करना होगा।’’
‘‘लेकिन साहब मुझे अपना पैसा चाहिए… बेटा बहुत बीमार है।’’ लल्लन बाबू के चेहरे पर बीमार बेटे की तस्वीर उभर आई थी लेकिन लल्लन बाबू की पीड़ा का असर सेल्स एक्जीक्यूटीव पर कुछ खास नहीं पड़ा था। वह तो हर हाल में पालिसी का डेमो लल्लन बाबू के सामने उड़ेल देना चाहता था। वह बता देना चाहता था कि किसी भी परिस्थिति में निवेश कितना अनिवार्य है। जान रहे चाहे जाए निवेश के अभाव में आदमी का जीवन बेमानी है। लाख समझाने के बाद भी जब लल्लन बाबू पैसा निकालने की जि़द पर अड़े रहे तो उसने बुरा सा मुंह बनाते हुए उन्हें उस काउन्टर का रास्ता दिखा दिया था जहां से पैसा निकाला जा सकता था।
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उस दिन लल्लन बाबू काफी व्यस्त थे संयोग से ईद और दशहरा लगभग एक साथ आया था। कोई अपनी अचकन के लिए किलोल कर रहा था तो तो किसी की चोली तंग हो रही थी, किसी को दशहरा में मायके जाने की होड़ थी, तो कोई ईद पर चमचमाती कुर्ती पहनने के लिए नाक में कोड़ी डाल रहा था। अब लल्लन बाबू थे भी तो इलाके में सबसे काबिल और हुनरमंद मास्टर, त्यौहारी मौसम में भला किसमें दम था, जो उनकी कैंची रोक दे। रोहन की मां को भी दम मारने का समय न था। काज बटन हेम तुरपाई मानो आफत गले आ पड़ी हो, पर पैसा किसे बुरा था। फिर फैशन के जमाने में साल भर दर्जी को पूछता कौन है। तीज त्यौहार ना रहे तो भूखों मरने की नौबत आ जाए। गली-नुक्कड़ तक के लोग तो ब्रांडेड पहनने लगे हैं। लल्लन बाबू कारिन्दे को कपड़ा काट कर दे ही रहे तभी दरवाजे पर चमचमाती कार रूकी थी… ‘‘सर मैं अजेश मिश्रा क्या आप से दो मिनट बात कर सकता हूं?’’ कार से उतरे युवक ने बहुत उत्साह से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया था।
‘‘हां कहिए’’ लल्लन बाबू की आवाज के सुखेपन से युवक थोड़ा झेंप गया था।
‘‘सर मैं न्यू वेल्थ इंश्योरेंश प्रा.लि. से आया हूं। हमारी कम्पनी का नया प्राडक्ट मार्केट में लांच हुआ है जिसका डेमो मैं आपको देना चाहता हूं।’’ युवक के टेक्निकल लैंग्वेज से लल्लन बाबू को थोड़ी खीझ सी हुई थी।
‘‘हां कहिए क्या बताना चाहते हैं।’’ लल्लन बाबू का चेहरा भावहीन था।
‘‘जी मैं आपको कुछ बचत योजना के विषय में बताना चाहता हूं।’’
‘‘ना… ना अभी हम जमा वमा नहीं करेंगे भाई, पैसा न कउड़ी बीच बाजार में दौड़ा दउड़़ी…’’ मुहं, में भरे खैनी को वहीं खड़े-खड़े पच्च से थूकते हुए लल्लन बाबू गुलगुली वाली हंसी हंसे थे।
‘‘ऐसी बात नहीं है सर कि, मैं आज ही आपको पैसा जमा कराने लिए कह रहा हूं। मैं तो आज फिल्ड विजिट के लिए निकला हूं। आज तो बस आप से बात करना चाहता हूं। आपको जमा करने की आवश्यकता और उसके महत्व के विषय में कुछ बताना चाहता हूं, क्योंकि आप तो जैसे-तैसे गुजार लेंगे पर यदि कुछ जमा कर लेंगे तो आपके बच्चे का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा।’’ युवक मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहा था।
‘‘आप बात तो सही कर रहे हैं साहब पर बर्तमाने बिगड़ा है तो भविष्य के लिए का सोचे। अब आज तक पाई नहीं बटोर पाए तो आगे क्या बटोरेंगे। ऐसे ही सीते फारते चले जाएंगे का हो दुलारे जी गलत कह रहे हैं?’’…. लल्लन बाबू बगल में सिलाई करते दर्जी को देख कर कनखियाये थे। ‘‘धोकड़ी में कुछ रहे तब ना बचाने की सोचे पेट काट कर जैसे तैसे तो जिन्दगी की गाड़ी घसीट रहे हैं।’’
‘‘पेट काट कर ना कोई बना है ना बनेगा…। आदमी को अपनी आमदनी बढ़ाने का रास्ता खोजना चाहिए।’’ ‘‘जीवन के कठिन दौर पर तो हमारा बस नहीं होता पर भविष्य को सुरक्षित किया जा सकता है।’’ आजेश ने बाजारू व्याख्यान दिया था। ‘‘आप चाहें तो आज शाम को मैं आपको बीमा बक्सा दे दूंगा जिसमें आप रोज अपनी बचत कर सकते हैं।’’
‘‘देखिए साहब आप तो देख ही रहे हैं अभी तो दम मारने का समय नहीं है। त्योहार का सीजन है गाहक सिर पर चढ़ा है।’’
‘‘ठीक है ना आप जब कहें मैं आ जाऊंगा। अगर आप कोई तारीख बता देते तो’’… अजेश के चेहरे पर अनिश्चितता की लकीर खींच गई थी।
‘‘अब तारीख का बतावें साहब आप आते जाते जब मन करे मिल लीजिएगा।’’ लल्लन बाबू अब कपड़ा काटने में व्यस्त हो गये थे।
‘‘अगर  आपका कोई मोबाईल नम्बर हो तो….’’
‘‘कहां बड़े भाई, यहां पेट भरना तो मुश्किल हो रहा है मोबाईल का एक ठो और खर्चा।’’
जद्दोकाहद जीवन की कठोर सच्चाई है। सूरज की रोशनी भी उन्हीं को मिलती है जिनके मुंडेर ऊंचे होते हैं। पूंजी के आगे सारे रिश्ते बेमानी हो गए हैं। बाजार के गहरे रंग में आत्म सम्मान घुल चुका है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए उसके अभिकर्ता मशीन हैं। और अभिकर्ताओं के लिए समाज का हर रिश्ता उत्पादन। लल्लन बाबू के बेहद सूखे व्यवहार के बावजूद अजेश ने आखिर उनके घर जाने का रास्ता निकाल ही लिया था। टीन की छप्पर वाले लल्लन बाबू के घर की दीवारें तो ईंटों से बनी थीं, पर सालों से पुताई न होने की वजह से पतझड़ से उजड़े हुए पेड़ सी लग रही थीं। उन्होंंने घर के बाहर वाले कमरे को टीन के आलमारी से घेर कर छोटी सी दुकान का शक्ल दे दिया था। जिसमें मीठी गोली के डिब्बे, शक्कर, चायपत्ती, बीड़ी, खैनी, कुछ नमकीन थोड़ा महुआ, आलू, प्याज, जैसी रोजमर्रा की वस्तुएं रखी हुई थीं। वहीं किनारे एक सिलाई मशीन भी रखी हुई थी जिसके बगल में रखे कैंची और धागा से मशीन के लगातार प्रयोग का सहज ही अंदाज लगाया जा सकता था। दुकान पर दो एक नंग धड़ंग ग्राहक भी नकार आ रहे थे।
कीचड़ कादो युक्त लल्लन बाबू के दुकान नुमा घर की संड़ाधता के आगे जहां सूरज भी ज्यादा देर तक रूकने की काहमत नहीं उठाया है, वहां आज बाजार अपने चमाचम कार में खड़ा था। अजेश की गाड़ी रुकी तो नंग-धड़ंग बच्चे कार को घेरकर खड़े हो गए थे। जिन्हें बड़ी मुश्किल से डांट-डपट कर भगाया गया।
वैसे तो अजेश के आने से लल्लन बाबू कुछ खास खुश नहीं हुए थे, पर रोहन की मां के लिए दरवाजे पर कार वाला मेहमान आना गर्व की बात थी। सिगड़ी के धुंए से लगभग रीठ चुकी कुर्सी पर अजेश को बिठाया चाय-पानी पूछा पर आजेश ने इन सब बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। वह तो सीधे मुद्दे पर आ गया था। वैसे भी बाजार के मुंह में चबा जाने वाला दांत तो होता है पर सीने में दिल नहीं होता। पालिसी के विषय में थोड़ी बहुत चर्चा के बाद अजेश ने प्रपोजल फार्म निकाल लिया था।
‘‘पालिसी किसके नाम से होगी’’
‘‘इनके नाम से ही कर दीजिए साहब….’’ रोहन की मां सिर पर आंचल खींचते हुए मुस्कुराई थी।
‘‘ना…ना पैसा कौड़ी का जाल-जंजाल तुम ही सम्हालो गधे का काम ढोना भर होता है।’’ लल्लन बाबू गुलगुली वाली हंसी हंसे थे। ‘‘ये भी ना बस….’’ रोहन की मां झेंप गई थी।
‘‘मेरी समझ से पैसा पुरुष के नाम से जमा कराना चाहिए’’ अजेश ने अपनी राय रखी थी।
‘‘आपको जो अच्छा लगे करिए… बस एक बात का ख्याल रखिएगा… पैसा निकालते समय कोई परेशानी ना हो… गरीब का पैसा है साहब बड़ी मुश्किल से पेट काट कर जमा किए हैं। आप जिद्द कर रहे हैं तो जमा कर रहे हैं, नहीं तो…। भगवान की दया से लडक़ा पढऩे में होशियार है। पांच साल में कुछ मिल जाएगा तो लडक़े की पढ़ाई के लिए सहारा हो जाएगा…’’ लल्लन बाबू के चेहरे पर भविष्य की लकीर खींच गई थी।
‘‘आप चिंता न करें हमारी कम्पनी जमा का पच्चीस प्रतिशत आर.बी.आई. के गाइड लाइन के अनुसार फिक्स करती है बाकी बचा धन हम मार्केट में इन्वेस्ट करते हैं। हमारे पास आपका पैसा एक दम सुरक्षित रहेगा इसकी मैं गारंटी देता हूं। एक बात मैं आपको और बता देना चाहता हूं। कंपनी का मार्केट वैल्यू लगातार बढ़ रहा है। सेंसेक्स में हमारे शेयर का रेट हमेशा हाई रहता है। कम्पनी अपना डिविडेंड भी अपने कस्टमर को ही प्रोवाइड करती है। इसलिए आपका फण्ड वैल्यू भी बढ़ जाता है। आइ थिंक पांच साल में आपको आपके जमा धन का दो से ढाई गुना तक तो मिल ही जाएगा।’’ अजेश की टेक्निकल बातों को तो लल्लन बाबू नहीं समझ पाए उन्हें बस एक ही बात समझ में आई थी कि पांच साल में उनका पैसा दो से ढाई गुना हो जाएगा। इसलिए उनको जहां जहां बोला गया अपना नाम लिखते चले गए। रोहन की मां ने तो अधिक से अधिक पैसा जमा करने के उत्साह में रोहन के गुल्लक को भी जमा के हवाले कर दिया था। पैसा मिला तो अजेश भी सपाट से पेपर कम्प्लीट कर के चला गया था। हांलाकि विश्वसनीयता बनी रहे इसका ध्यान रखते हुए अजेश ने लल्लन बाबू से भी साथ चलने का औपचारिक निवेदन किया था।
‘‘साहब दुनिया में विश्वास से बड़ा कुछ नहीं है.. फिर आप गरीब का पैसा लेकर नहीं भागेंगे इतना भरोसा है।’’ लल्लन बाबू ने उदारता दिखाई थी।
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रोहन की पीड़ा लगातार बढ़ती जा रही थी लेकिन एक ऐसा बाप जो जीने के लिए रोज कुंआ खोदता है, के हाथ में अपने पैसों के लिए चक्कर लगाने के अलावा कुछ भी न था। कभी फोटो आई.डी. के लिए तो कभी बैंक पेपर के लिए लगभग सात दिन दौडऩे के बाद जब लल्लन बाबू को पेमैंट स्लिप मिला तो मिलने वाली रकम सुन कर उनके होश फाख़्ता हो गए थे।
‘‘लेकिन मैडम जी जमा करवाने वाले साहब ने तो कहे थे कि हमको हमारे पैसा का दौगुना से ढाई गुना तक मिलेगा लेकिन यह तो जमा से भी कम है।’’
‘‘जब रिस्क से डर था तो आपने मार्केट बेस्ड पालिसी में इन्वेस्ट क्यों किया था? आपको बाजार की स्थिति का पता नहीं है क्या? सेंसेक्स लगातार लुढक़ता चला जा रहा है।’’ रिसेप्शन पर बैठी युवती भुन-भुनाई थी।
‘‘लेकिन मैंने तो पेट काट कर जमा किया था….। मेरा लडक़ा बहुत बिमार है… वो तो मर जाएगा….’’। लल्लन बाबू के आगे धुंध सा पसर गया था।
‘‘देखिए इस विषय में मैं कुछ नहीं कर सकती। नेट पर आपका जो बैलेंस बता रहा है, आपको वही पेमेंट किया गया है। इफ यू हैव मोर प्राब्लम यू कैन कन्सल्ट आवर ब्रांच मैनेजर।’’  काउंटर पर बैठी लडक़ी के चेहरे पर झुंझलाहट भरी तिकोनी मुस्कान तैर गई थी।

व्यंग
विज्ञान कांग्रेस : हम तो केवल विमान ही उड़ाते  थे,
अरब तो कालीन भी उड़ा लिया करते थे
डा. द्रोण कुमार शर्मा

अभी हाल ही में भारतीय विज्ञान कांग्रेस संपन्न हुई है। इसलिए कुछ बात विज्ञान पर भी।
पिछले चार साल आठ महीने में मेरी वैज्ञानिक जानकारी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। ज्ञात हुआ है कि हमारे देश में हजारों साल पहले से ही विमान उड़ा करते थे। बताया गया कि रावण के पास आठ प्रकार के विमान थे। वे विमान दूसरे देशों में तो जाते ही थे, दूसरे ग्रहों पर भी जाते रहे होंगे। संभव है राकेट भी रहे हों उस जमाने में हमारे पास।
चिकित्सा विज्ञान तो इतना उन्नत था कि जितना अभी तक नहीं हुआ है। हेड ट्रांसप्लांटेशन तक संभव था। वो भी इतना उन्नत कि आदमी के धड़ पर हाथी या सिंह का सिर लगा दिया जाता था। पहले से कोई तैयारी नहीं, न कोई खून टेस्ट या न रक्त समूह (ब्लड ग्रुप) का मिलान। किसी मानव का सिर कटा नहीं कि आस-पास जो भी जानवर खड़ा हो उसका सिर काट कर लगा दिया। जानवर आदमी से दूर-दूर भागते थे कि क्या पता किस आदमी का सिर कट जाये और नौबत उस जानवर की आ जाये। अनुवांशिकी इतनी उन्नत थी कि घड़े में टेस्ट-ट्यूब बेबी पैदा कर दिया जाये और वो भी एक ही डिम्ब से सौ-सौ। यह बात मुझे आदरणीय श्री मोदी जी और उनके अन्य मंत्रीगणों ने समझाई।
संचार क्रांति आज से अधिक हो चुकी थी। रेडियो टीवी तो क्या, महाभारत के काल में हमारे देश में इंटरनेट भी उपलब्ध था। हां वो किस किस को उपलब्ध था यह अभी ज्ञात नहीं है। राजाओं, मंत्रियों और ऋषियों को ही उपलब्ध था अथवा आम जनता को भी उपलब्ध था? यह भी नहीं पता है कि ‘जियो’ से कम रेट में उपलब्ध था या उससे महंगा था।
आयुद्ध विज्ञान के क्षेत्र में देश की उन्नति हमारी सोच से भी आगे थी। ऐसी ऐसी मिसाइल थी जो अपना लक्ष्य भेद वापिस आ जाती थी। मिसाइल को छोडऩे के लिए मिसाइल लांचर जैसे कठिन उपकरण की बजाय उंगली से भी काम चल जाता था। कृष्ण जी का सुदर्शन चक्र एक ऐसी ही मिसाइल थी। कृष्ण जी अपनी सुदर्शन चक्र नामक मिसाइल को बार बार इस्तेमाल कर सकते थे और हर बार वह वार कर कृष्ण जी की उंगली में वापस आ जाती थी। शब्द भेदी मिसाइल, नेपाम बम (अग्नि बाण) और न जाने क्या-क्या। महाभारत में वर्णन मिलता है कि उस समय ऐसी मिसाइलें (बाण) भी मौजूद थीं कि चाहे तो आंधी या बारिश तूफान ला सकती थीं। ऐसी मिसाइल या बम अभी कल्पना ही हैं। ऐंटी मिसाइल भी थीं। कर्ण का कवच कुंडल और दुर्योधन का जंघाओं के अतिरिक्त सारे शरीर पर विशेष कवच व्यक्तिगत एंटी मिसाइल के उदाहरण हैं।
मुझे लगा कि जब भारत में इतनी उन्नति थी तो कुछ न कुछ उन्नति तो और जगह भी रही होगी या फिर दूसरे देशों में अनपढ़, जाहिल, गंवार ही रहते थे। मैंने सोचा, समझा और जाना कि और जगह भी विज्ञान काफी उन्नति कर चुका था। अंग प्रत्यारोपण के मामले में मिस्र और यूनान तो हमारे से भी आगे थे। हम तो स्तनधारी धड़ से स्तनधारी सिर ही जोड़ा करते थे जैसे आदमी के धड़ पर हाथी का या फिर सिंह का सिर पर उनके यहाँ तो मत्सय के धड़ (पूँछ) से मनुष्य (आम तौर पर नारी) का सिर भी जोड़ देते थे। इतना उन्नत था मिस्र और यूनानवासियों का चिकित्साशास्त्र। हमारे यहाँ तो विमान ही आकाश में उड़ा करते थे पर मुझे ज्ञात हुआ है कि अरबों ने वैमानिकी में इतनी उन्नति कर ली थी कि उनके यहाँ कालीन भी आकाश में उड़ा करते थे। और तो और कालीन आकाश में इतनी कुशलता से उड़ते थे कि कभी-कभी उन पर योद्धा तलवारबाजी भी करते रहते थे। अरबों का रसायन/चिकित्सा ज्ञान तो अद्भुत था। उनके पास तो इस तरह के रसायन तक मौजूद थे कि अगर उन्हें किसी मनुष्य पर छिडक़ दिया जाये तो वह गधा या बकरी कुछ भी बन सकता था और फिर उस पर कोई दूसरा रसायन छिडक़ कर वापस मनुष्य भी बनाया जा सकता था।
भारत, मिस्र-यूनान और अरबों के प्राचीन काल के उन्नत विज्ञान के बारे में पता करने के बाद मैं हैरी पॉटर सीरीज की कालावधि के बारे में पता कर रहा हूँ ताकि मैं प्राचीन यूरोप में भी वैज्ञानिक उन्नति के बारे में निष्कर्ष निकल सकूँ।
प्रसंगवश : क्या यहाँ यह उल्लेख करना उचित हो सकता है कि ईसाई धर्म का जन्म मिस्र यूनान के इलाके में तथा इस्लाम का जन्म अरब इलाके में हुआ था।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

तीन कविताएं
– अदम गोंडवी
हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडि़ए
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेडि़ए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेडि़ए

गर गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेडि़ए

छेडि़ए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्त! मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडि़ए
2.
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है

लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है
3.
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

See Also

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधीजी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है।

कविता
– दुष्यंत कुमार
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
    एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो
    इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है
एक खँडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है
    एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
    यह अँधेरे की सडक़ उस भोर तक जाती तो है
निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है
    दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
    और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है

कविता
चिडिय़ा को लाख समझाओ
-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
चिडिय़ा को लाख समझाओ
कि पिंजड़े के बाहर
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,
वहाँ हवा में उन्हें अपने जिस्म की गंध तक नहीं मिलेगी।
    यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,
    पर पानी के लिए भटकना है,
    यहाँ कटोरी में भरा जल गटकना है।
    बाहर दाने का टोटा है, यहाँ चुग्गाह मोटा है।
बाहर बहेलिए का डर है, यहाँ निर्द्वन्द्व कंठ-स्वर है।
फिर भी चिडिय़ा मुक्ति का गाना गाएगी,
मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,
पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,
हरसूँ ज़ोर लगाएगी और
पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।

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