रवि कंवर
हंगरी में मजदूर विरोधी श्रम कानूनों के खिलाफ संघर्ष
पूर्वी यूरोप के भूतपूर्व समाजवादी देश हंगरी की दक्षिणपंथी सरकार के विरुद्ध इन दिनों प्रदर्शन जारी हैं। यह रोष प्रदर्शन सरकार द्वारा लाये गए श्रमिक विरोधी कानूनों के विरुद्ध हो रहे हैं। 12 दिसंबर से निरंतर 16 दिसंबर तक किसी न किसी रूप में जारी इन प्रदर्शनों में हजारों लोगों ने भाग लिया। प्रदर्शनकारियों ने देश की राजधानी बुडापेस्ट में दानुवे नदी पर बने देश की संसद व ओकतोगोन क्षेत्र को जोडऩे वाले दोनों पुलों पर कब्जा कर लिया तथा यहां पुलिस से उनकी झड़पें भी हुई। पुलिस ने उन पर आंसू गैस के गोले फेंके व काली मिर्च युक्त द्रव का छिडक़ाव भी किया। जबकि प्रदर्शनकारियों ने इसका मुकाबला करते हुये पुलिस पर पटाखे तथा धुंआ छोडऩे वाले गोले फैंके। कई घंटों तक प्रदर्शनकारियों ने शहर के केंद्रीय भाग व मुख्य सैर-सपाटा स्थलों पर कब्जा किये रखा। प्रदर्शनकारियों के मुख्य नारे थे, ‘‘हम दास नहीं है?’’, ‘‘विश्वविद्यालयों को आजादी दो-देश को आजादी दो!’’
विक्टर ओर्वोन की दक्षिणपंथी पार्टी के कार्यकाल के समय हुये यह पहले रोष प्रदर्शन नहीं हैं, बल्कि इनमें नई बात यह है कि यह ज्यादा रोष भरपूर हैं तथा हिंसक रूप धारण कर रहे हैं। यहां यह भी नोट करने योग्य है कि यह फ्रांस में हाल में चल रहे ‘पीली बनियान’ आंदोलन से भी प्रभावित हैं।
इन प्रदर्शनों का मुख्य कारण ओर्वोन सरकार द्वारा बनाया गया ओवरटाईम के बारे में कानून है, जिसे मजदूर वर्ग द्वारा ‘दासता कानून’ का विशेषण दिया जा रहा है। इस आंदोलन में देश के विद्यार्थियों का सबसे महत्त्वपूर्ण संगठन स्टूडैंट ट्रेड यूनियन भी शामिल है। यह मुख्य रूप में वामपंथी विचारों वाला संगठन है, जो समानता पर आधारित समाज की स्थापना का अलंबरदार है। इसी तरह एक ओर संगठन, ‘हंगेरयिन मूमैंटम’ भी इस आंदोलन में शामिल होने का दावा करता है, जो सामाजिक रूप से उदारवादी विचारों वाले नौजवानों का संगठन है। इस आंदोलन को देश के नौजवान वर्ग का भरपूर सर्मथन हासिल है।
यह आंदोलन देश की दक्षिणपंथी सरकार द्वारा बनाये गए इस श्रम कानून के विरुद्ध शुरू हुआ है, जिसमें किसी कामगार को एक वर्ष में 400 घंटे तक ओवरटाईम करना लाजमी बना दिया गया है। मालिक के कहने पर मजदूर ओवरटाईम करने से इंकार नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त यह कानून कई मामलों में और अधिक मजदूर विरोधी है। इस कानून द्वारा मालिक को अपनी मर्जी से कार्य दस घंटे निर्धारित करने की छूट दी गई है। जिसका उद्देश्य वास्तव में मालिकों को यह अधिकार देना है कि वे मंदी वाले दिनों में कामगारों के कार्य दिवस को छोटा कर दें तथा जब काम अधिक हो तो ज्यादा समय काम लें। इसी तरह इस कानून में प्रतिवर्ष 400 घंटे ओवरटाईम वास्तव में 3 वर्षों में 1200 घंटे ओवरटाईम है, इसकी गणना तीन वर्षों बाद की जायेगी। इसके कारण मजदूरों की कार्य-स्थितियां और भी जटिल हो जायेंगी तथा यदि मजदूर तीन वर्ष से पहले नौकरी छोड़ जायेगा तो वह ओवरटाइम के भुगतान से वंचित भी हो सकता है।
वास्तव में, इस घोर मजदूर विरोधी कानून को लाने के पीछे ओर्वोन सरकार की नीयत हंगरी की पहले ही कम वेतन आधारित अर्थव्यवस्था को और अधिक तथाकथित रूप में लचीला बनाना है ताकि इसे देशी-विदेशी निवेशकों के लिए और भी आकर्षण भरपूर बनाया जा सके अर्थात् देश के मजदूर वर्ग, जो कि पहले ही कम वेतनों के कारण गरीबी से जूझ रहा है को और भी अधिक निचोडऩे का निमंत्रण देशी-विदेशी कारपोरेटों को देना है। हंगरी में इस समय न्यूनतम वेतन 533 अमरीकी डालर प्रति माह है या 6400 डालर प्रतिवर्ष। जबकि औसत वेतन भी यूरोप के मुकाबले कम, सिर्फ 1136 डालर प्रति माह है।
इस कानून को लाने का एक और तात्कालिक कारण जर्मन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा देश में श्रमिकों की कमी होने की समस्या का सामना करना है। वास्तव में देश में श्रमिकों की कमी का प्रमुख कारण है, यूरोपीय यूनियन के अतिरिक्त अन्य प्रवासियों के आने पर लगाई गई रोक। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ओर्वोन की र्दिक्षणपंथी पार्टी ने पिछले चुनाव, जिनके द्वारा यह सत्ता में आई है, लड़े ही इस मुद्दे पर थे कि प्रवासी ही हमारे देश में कम वेतनों, गरीबी, बेकारी व अन्य समस्याओं का मुख्य कारण हैं और वह अपनी इस नस्लवादी व नाजीवादी मुहिम में सफल भी रही तथा उसे 40 प्रतिशत लोगों का समर्थन मिला।
श्रमिकों की देश में कमी होने का एक और मुख्य कारण देश में वेतनों के कम होना, जिसके कारण नौजवान, कुशल व प्रशिक्षित पेशेवर श्रमिक दूसरे देशों में प्रवास कर गये। इस कुल 98 लाख की जनसंख्या वाले देश में से पिछले कुछ वर्षों में ही 6 लाख नौजवानों ने प्रवास किया है।
इन प्रदर्शनों में शामिल हंगरी के श्रमिक गुजस्लोवान-‘‘हम अधिक वेतन प्राप्त करने के कारण ओवरटाईम करते हैं, पर इस कानून का अर्थ है हमें ओवरटाईम का बोनस नहीं मिलेगा। सरकार चाहती है हम ज्यादा वेतन के लिए खटते रहें, न मनोरंजन का समय, ना परिवारों के लिए समय तथा ना ही आराम के लिये।’’ इसी तरह जर्मन कंपनियों के विरुद्ध रोष प्रकट करते हुए सेवामुक्त फैक्ट्री कर्मचारी एंटोनियों राडे के उद्गार-‘हम यूरोप भर में सस्ते श्रम का बोझ ढोते-ढोते थक गये हैं। हम जर्मन आटोमोबाइल कंपनियों के लिए कार्य करते हैं, परंतु वे हमें कारें उन्हीं दामों पर देते हैं। या तो हमें जर्मनी जितना ही वेतन दें या फिर हमें सस्ते श्रम के बदले में सस्ती कारें दें।’’
इस आंदोलन में लोगों की शिरकत दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है तथा इसमें श्रमिकों व विद्यार्थियों का एकजुट होना भी इस आशा को जगाता है कि इसे देश के समूचे समाज से भी समर्थन मिलना निरंतर बढ़ता जायेगा जो निश्चय ही देश की दक्षिणपंथी विक्टर ओर्वोन सरकार को अपने इस मजदूर-विरोधी कदम को वापिस लेने के लिए मजबूर कर देगा।
अल्बानिया में विद्यार्थियों का फीसों में बढ़ौत्तरी के विरुद्ध संघर्ष
यूरोप के देश अल्बानिया में देश के विद्यार्थी संघर्ष के राह पर हैं। दिसंबर माह के प्रथम सप्ताह में देश की राजधानी तिराना व अन्य प्रमुख शहरों में हजारों की संख्या में लोगों ने जबरदस्त रोष प्रदर्शन किये। ‘यूनिवर्सिटी मूवमैंट’ नाम के विद्यार्थियों के संगठन द्वारा सरकार द्वारा यूनिवर्सिटी शिक्षा के लिए बढ़ाई गई फीसों के विरुद्ध इन रोष एक्शनों का आह्वान किया गया था। जिसे देश भर में जबरदस्त समर्थन मिला। विद्यार्थियों की प्रमुख मांग है कि सरकार द्वारा की गई फीसों में बढ़ौत्तरी वापिस ली जाये तथा स्नातक कोर्सों के लिए फीसें आधी की जायें।
अल्बानिया यूरोप का कुल 32 लाख की जनसंख्या वाला एक छोटा सा भूतपूर्व समाजवादी देश है। बालकान प्रायद्वीप में स्थित यह देश इस समय रिपब्लिक आफ अलबानिया के नाम से जाना जाता है। इस देश में समाजवादी व्यवस्था के टूट जाने के बाद आर्थिक व सामाजिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी। 2013 में ‘अल्बानियाई पुर्नजागरण’ का नारा देकर देश में एक सोशल-डैमोक्रेट पार्टियों पर आधारित गठजोड़ सत्ता में आया था, जिसका नेतृत्व ईडी रामा कर रहे हैं। परंतु देश की जनता को उसकी मुश्किलों से राहत प्रदान करने की जगह इस सरकार ने यूरोपीय संघ की सदस्यता प्राप्त करने को तरजीह देते हुए लोगों की आशाओं-उमंगों को कुर्बान करना शुरू कर दिया तथा यह सिद्ध करने के अनुरूप ही सभी नीतियां बनानी शुरू कर दीं कि यह देश यूरोपीय संघ की सदस्यता की पात्रता के योग्य है। इस के लिए उन्होंने ब्रिटेन के भूतपूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर को सलाहकार नियुक्त कर लिया जो कि अपने देश में निजीकरण लागू करने के लिए बदनाम हैं। मुक्त बाजार के नाम पर लागू किए तथाकथित सुधारों में, ब्रिटिश विश्वविद्यालय प्रणाली के अनुरूप देश के उच्च शिक्षा ढांचे में परिवर्तन किये गये। जिसका एक परिणाम है, यह उच्च शिक्षा की फीसों में की गई बढ़ौतरी। इन सुधारों के परिणाम बहुत ही व्यापक हैं। इस आंदोलन को छुटियाने के लिए देश के प्रधानमंत्री ईडी रामा ने कहा कि ‘यह आंदोलन अच्छे नंबर न ले पाने वाले विद्यार्थियों का आंदोलन है।’ तो प्रदर्शनकारियों में गुस्सा और ज्यादा भडक़ गया तथा इसका प्रत्युत्तर दिया-‘हां, अच्छे नंबर नहीं ले पाते क्योंकि हमें अपनी फीसें भरने व पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे जुटाने के लिए 12-12 घंटे खटना पड़ता है।’ यहां यह भी वर्णनीय है कि इस आंदोलन को जब दक्षिणपंथी पार्टियों ने समर्थन देना चाहा तो विद्यार्थी संगठन ने इससे इंकार कर दिया।
अल्बानिया के यह प्रदर्शन स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि देश में नवउदारवादी नीतियों के विरुद्ध आंदोलन प्रारम्भ हो चुका है।
सर्बिया में तानाशाह राष्ट्रपति के विरुद्ध जबरदस्त संघर्ष
सर्बिया गणराज्य, यूरोप के बालकान प्रायदीप में स्थिति महज 98 लाख की आबादी वाला एक देश है। यह पिछली सदी के खुशहाल समाजवादी देश यूगोस्लाविया का एक भाग है। यहां उल्लेखनीय है कि 1990 में यूगोस्लाविया देश में समाजवादी शासन के टूट जाने के बाद यह देश गृहयुद्ध के बाद कई टुकड़ों में बंट गया। 2006 में ‘सर्बिया व मोंटेनिग्रो यूनियन’ नाम के देश के टूटने के बाद यह देश सर्बिया अस्तित्व में आया है। 15 दिसंबर को यह उस समय चर्चा में आ गया जब इसकी राजधानी बैलग्रेड में भारी बर्फवारी में भी हकाारों प्रदर्शनकारियों ने रोष प्रदर्शन किया। इनमें से बहुतों ने फ्रांस के ‘पीली बनियान’ आंदोलन से प्रेरित होकर ‘पीली बनियानें’ पहनी हुईं थीं। यह प्रदर्शन सप्ताहांत, अर्थात् शनिवार, को होने वाला प्रदर्शन देश के राष्ट्रपति अलैग्जैंडर वूसिक के विरुद्ध दूसरा प्रदर्शन था। यह वूसिक व उसकी सरकार द्वारा विपक्ष के नातओं व मीडिया पर किए जा रहे हमलों के विरुद्ध रोष प्रकट करने के लिए किया गया था।
यहां यह वर्णनीय है कि पिछले महीने एक राजनीतिक एकत्रता पर केंद्रीय सर्बिया के क्रूसेवाक कस्बे में राषट््रपति के गुंडों ने हमला कर दिया था। जिसमें वामपंथी नेता बोर्को स्टीफेनिक घायल हो गए थे। इस घटना के विरोध में विपक्षी पार्टियों द्वारा साप्ताहांत किए जाने वाला यह दूसरा प्रदर्शन था, जिसे जनता का व्यापक समर्थन मिला था।
2017 में भी वूसिक, जोकि एक घोर दक्षिणपंथी विचारधारा से संबंध रखते हैं, के विरुद्ध देश की राजधानी बैलग्रेड में नौजवानों ने सप्ताह भर प्रदर्शन किए थे।
विपक्षी पार्टियों के गठजोड़-‘अलाइंस फार सर्बिया’, जिसमें कि जनवादी विचारधाराओं वाली राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं, के आह्वान पर इस प्रदर्शन में देश के भूतपूर्व विदेश मंत्री वूक जेरमिक, बैलग्रेड के मेयर दरागान दजीलास समेत विपक्षी पार्टियों के कई मुख्य नेता शामिल थे। प्रदर्शनकारी नारे लगाते हुए राष्ट्रपति भवन पहुंचे, जिससे कुछ पहले ही उन्हें रोक लिया गया। यहां हुई सभा को कई नेताओं ने संबोधन किया तथा राष्ट्रपति अलैग्जैंडर बूसिक के त्याग-पत्र की मांग की तथा आरोप लगाया कि वूसिक ने एकाधिकारवादी सत्ता स्थापित करके मीडिया को अपने चंगुल में ले लिया तथा उसके इस जनविरोधी कृत्य विरोध करने वाले विपक्ष पर हिंसक हमले कर रहा है। इस सभा को संबोधन करते हुए पिछले माह हुए हमले में घायल वामपंथी नेता बोर्को स्टेफानोविक ने कहा-‘हमें ना रोका जा सकता, ना मूक किया जा सकता है।’ इस प्रदर्शन में नारे थे-‘कब तक सर्बिया इस बुराई को बर्दाश्त करेगा’, ‘मैं इसलिए गुस्से में हूं-क्योंकि वे झूठ बोलते है, चोरी करते हैं’, ‘वूसिक चोर है।’
इस प्रदर्शन में शामिल 51 वर्षीय जवैनको राडोसेविक ने कहा-‘वह इसमें शामिल है क्योंकि हम वूसिक के एकाधिकारवादी शासन में नहीं रहना चाहते। मैं नहीं चाहता कि वूसिक मेरा प्रतिनिधित्व करे। लोग अपना धैर्य खोते जा रहे हैं पर अभी भी उनमें आग बाकी है।’
इस सप्ताहांत प्रदर्शन के बाद राष्ट्रपति वूसिक का कहना था कि वह विपक्ष की निष्पक्ष मीडिया व चुनावों के बारे में मांग नहीं मानेगा, चाहे 50 लाख लोग भी क्यों ना सडक़ों पर आ जायें। दूसरी ओर यूरोपियन संसद ने इन पर चिंता प्रकट करते हुए अव्यिक्ति की स्वतंत्रता व मीडिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के बारे में कहा है।
श्रम कानूनों में संशोधनों के विरुद्ध दक्षिण कोरिया के मेहनतकशों का संघर्ष
दक्षिण कोरिया के लाखों मजदूरों ने नवंबर माह के अंतिम सप्ताह में देश की मून जई-इन सरकार द्वारा ‘श्रम सुधारों’ के नाम पर श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी संशोधनों के विरुद्ध एक दिवसीय हड़ताल की। देश की राजधानी सियोल समेत 14 शहरों में हड़ताल करने के बाद मजदूरों ने रोष प्रदर्शन किए। देश की राजधानी में संसद के समक्ष प्रदर्शन किया गया जिसमें हजारों मजदूरों ने भाग लिया।
कोरियाई कन्फैडरेशन आफ ट्रेड यूनियंज (के.सी.टी.यू.) के आह्वान पर की गई इस हड़ताल में मुख्य रूप से धातु उद्योग में कार्यरत मजदूर शामिल थे, जिनके सिर पर बड़ी कंपनियों द्वारा कारोबारों की पुर्नगठित करने के कारण छंटनी की तलवार लटक रही है। बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी भी इन प्रदर्शनों में शामिल थे, जिनसे इस सरकार ने चुनावों के दौरान उन्हें स्थाई करने का वायदा किया था परंतु अभी उनसे निरंतर टालम टोल किया जा रहा है। इन प्रदर्शनों के दौरान भी मजदूरों-कर्मचारियों ने इस बात पर गहरा रोष था कि मून-जई-इन सरकार केबल चुनावों के दौरान किए वायदों से मुकर ही नहीं रही बल्कि यह मजदूर विरोधी नीतियां भी लागू कर रही है।
यहां वर्णनीय है कि अक्तूबर 2016 में उस समय की पार्क गयून-हई सरकार के विरुद्ध रोष प्रदर्शन शुरू हुए थे, जो ‘मोमबत्ती रोष प्रदर्शनों’ के रूप में बहुत विशाल व व्यापक रूप ग्रहण कर गए थे। सरकारी कर्मचारियों द्वारा मुख्य रूप से सरकार द्वारा श्रम सुधारों के नाम पर लागू किए जा रहे मजदूर, कर्मचारी विरोधी श्रम कानूनों के विरुद्ध प्रारंभ किए गये प्रदर्शनों ने ही इन ‘मोमबत्ती प्रदर्शनों’ के लिए आग की चिंगारी का काम किया था। इन्हीं ‘मोमबत्ती रोष प्रदर्शनों’ की उपज है, मौजूदा राष्ट्रपति मून जई-इन सरकार। इसलिए ही इसे ‘मोमबत्ती रोष प्रदर्शनों’ की सरकार का नाम भी दिया जाता है। उस समय चुनावों के दौरान मून-जई-इन ने पार्क गयून- हई के मजदूर विरोधी श्रम सुधारों व ट्रेड यूनियन विरोधी कदमों को वापिस लेकर मजदूर अधिकारों को सम्मान प्रदान करने की बात की थी।
सरकार संभालने के तुरंत बाद मून जई इन मजदूरों व मालिकों को संतुलित करने के कुछ प्रयत्न किये थे। तथा ट्रेड यूनियनों को उन्हों ने एक वर्ष का समय देने के लिए कहा था। इससे उनमें कुछ आशा भी जगी थी कि नई सरकार बातचीत द्वारा कोई नये सामाजिक कदम उठायेगी परंतु जल्द ही उनकी यह आशा छलावा साबित हुई। वास्तव में समूची दुनिया में पूंजावादी व्यवस्था के संकट की मार दक्षिण कोरिया की मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियां भी झेल रही हैं, जो कि इस देश की अर्थव्यवस्था का इंजन मानी जाती हैं। इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में मून जई-इन सरकार ने पलटी मारते हुए अपने मजदूर विरोधी कृत्य शुरू कर दिए।
मून जई-इन सरकार ने इस ओर बढ़ते हुए स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण शुरू किया, इसके साथ ही उसने श्रमिकों की कार्य स्थितियों व वेतनों पर भी हमले शुरू कर दिए। इसके परिणामस्वरूप जहाज निर्माण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छंटनी हुई। पिछले वर्ष सरकार ने न्यूनतम वेतन में अच्छी बढौत्तरी की थी जिसे इस साल संसद में कानून बनाके इसे लगभग छीन ही लिया गया है। एक अन्य कदम द्वारा श्रमिकों के कार्य दिवस को लचीला बनाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं, जिससे मालिक अपनी मर्जी से कार्य दिवस की अवधि को घटा या बढ़ा सकेंगे। इस प्रकार मजूदरों के ओवरटाईम करके कुछ अधिक राशि कमाने के अवसर लगभग पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेंगे। इन सब मजदूर विरोधी कदमों में देश की प्रमुख विरोधी पार्टी, पार्क गयून-हई की पार्टी पूर्ण सहयोग कर रही है। इस तरह दक्षिणपंथ पुन: देश की राजनीति में प्रमुख बनता जा रहा है।
मून जई-इन सरकार के इन कदमों से देश के समस्त मजदूर वर्ग में उसके इन कदमों के विरुद्ध गुस्सा व घृणा बढ़ती जा रही है। सरकार समर्थक ट्रेड यूनियन केंद्र ‘फैडरेशन आफ कोरियन ट्रेड यूनियन’ द्वारा भी इन मजदूर विरोधी कदमों के विरुद्ध देश भर में रैलियां करने के लिए मजबूर होना, इसका एक प्रमाण है। इस सरकार की लोकप्रियता भी दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 2018 वसंत में इस सरकार की लोकप्रियता दर 80 प्रतिशत थी, जो अब घट कर 50 प्रतिशत से भी नीचे चली गई है। देश के मेहनतकश वर्गों के और भी अधिक एकजुटतापूर्ण तथा व्यापक संघर्षों द्वारा ही इस सरकार के मजदूर विरोधी कदमों व उसे राजनैतिक रूप से दक्षिणपंथ की ओर बढऩे से रोका जा सकता है। दक्षिण कोरिया के मेहनतकशों द्वारा 2016 में किए गए व्यापक व विशाल ‘मोमबत्ती रोष प्रदर्शन’ इसकी ज्वलंत मिसाल हैं।