महीपाल
हाल ही में संपन्न हुए 17वें लोकसभा चुनाव से संबंधित घटनाक्रम से देश और देशवासियों का उज्जवल भविष्य चाहने वालों सभी के मन में शंकाएँ एवं चिताएं पैदा हुई हैं। यह फिक्र है भी उचित, क्योंकि हमारे राजनैतिक दलों एवं राजनेताओं ने इन चुनावों में जनतांत्रिक मूल्यों की जम कर खिल्ली उड़ाई है। बड़ी मात्रा में किए गए धन एवं बाहुबल के दुरुपयोग के चलते चुनाव आयोग द्वारा तय की गई अधिकतम खर्च की सीमा महज कागजी बनकर ही रह गई। अब तो शासक वर्गों के रंग बिरंगे केन्द्रीय एवं क्षेत्रीय दलों द्वारा उम्मीदवार चुनने के मानक ही बड़े हास्यास्पद बन गए हैं। किसी को टिकट देते समय उस का जनसेवा का रिकार्ड, जन सामान्य में काम करते हुए किसी द्वारा किए गए त्याग या दल विशेष के प्रति समर्पण की भावना इत्यादि गुणों के आधार पर निर्णय करना गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। वर्तमान में टिकट देने का पैमाना यह बन गया है कि उम्मीदवार जीतने के लिये खुद कितना खर्च कर सकता है तथा साथ ही साथ पार्टी को कितनी मोटी थैली भेंट कर सकता है। चुनावों में पानी की तरह बहाए गए इस अपार धन का स्त्रोत बड़े उद्योगपतियों व कारोबारियों द्वारा शासक वर्गीय दलों को चन्दे के नाम पर दी जाती मोटी धनराशि है। इसके अतिरिक्त हवाला हेर-फेर करने वाले, जखीरेबाज, अपराधी सरगना, भ्रष्ट नौकरशाह इत्यादि भी इन दलों को जी भर कर ‘दान’ देते हैं। किन्तु से भार भरकम धन ‘चन्दा या दान’ न होकर इन रक्तपिपासू मुनाफाखोरों का निवेश है क्योंकि ये तथाकथित ‘दानवीर’ अपनी मन भावन सरकार अस्तित्व में आने पर दान की गई धन राशि से हजारों गुणा अधिक की नजायज कमाईयां अपने पि_ू राजनेताओं के माध्यम से करते हैं। दान की आड़ में की जाती यह अपवित्र सौदेबाजी भारत के स्वतंत्र होते ही चलन में आ गई थी। किन्तु निवर्तमान चुनावों में जो अरबों-खरबों के हेर-फेर राजनैतिक चन्दे की आड़ में भाजपा ने किए हैं वो लोकतंत्र एवं लोकराज की मान्यताओं की जड़ में मठ्ठा डालने के तुल्य है। हैरानी की बात तो ये है कि इस दान दक्षिणा का भंडाफोड़ भी चुनाव से ऐन पहले हो गया था परन्तु फिर भी इस अपार धन का संभावित दुरुपयोग रोकने हेतु कुछ भी नहीं किया।
शासक भाजपा एवं इसके सहयोगी संगठनों द्वारा धर्मनिरपेक्ष मूल्यों एवं जनतांत्रिक मान्यताओं को धता बताते हुए, फौरी राजनैतिक हित साधने की गरज से भारतीय समाज की अखंडता छिन्न-भिन्न करने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने दिया। धार्मिक विश्वासों, प्रतीकों आदि का प्रचुर मात्रा में दुरुपयोग करते हुए संप्रदायों में वैमन्सय पैदा करने के भरसक प्रयास किए गए। यहां तक कि मानवता के शत्रु आतंकियों को भी धार्मिक आधार पर छांट लिया गया। मालेगांव, अजमेर आदि स्थानों एवं भारत-पाकिस्तान के दरमयां चलती ‘‘समझौता एक्सप्रैस’’ नामक रेलगाड़ी में बम धमाका कर निर्दोषों की जान लेने के जघन्य अपराध के लिए आरोपी नामजद की गई साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भाजपा द्वारा भोपाल से लोकसभा का टिकट दिया गया। इस बात के लिए देश का भला चाहने वालों द्वारा की गई भाजपा की आलोचना को भाजपा नेतृत्व ने ठेंगे पर लिया। वस्तुत: भाजपा को इस संभावी आलोचना का पहले से ही संज्ञान था तथा यह फैसला बहुत सोच समझ कर लिया गया था। इस निर्णय से भाजपा की तथाकथित हिन्दुत्वी राजनीति एवं हिन्दु हित रक्षक होने के फर्जी दावों को बल मिला। प्रज्ञा को उम्मीदवार बना कर भाजपा ने अपना आजमाया हुआ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का निशाना भी प्रवीणता से साध लिया। इसके अतिरिक्त यह रणनीति संघ/भाजपा को दीर्घकालीन उद्देश्य, कट्टर हिन्दू राष्ट्र का निर्माण को आगे बढ़ाने में भी मददगार हैं। धर्म के आधार पर आवाम को बांटने की इन साजिशों के दूरगामी खतरनाक परिणामों से भारतीय आवाम, विशेषतया हिन्दू मेहनतकश वर्ग को चेतन करना जनतांत्रिक आंदोलन के समक्ष आज की प्राथमिक एवं विशालतम चुनौती है।
जनतंत्र को कमजोर करने वाली एक और विषमता भी ध्यान देने योग्य है। यह विषमता है, भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली का परिवारवादी की बांदी के रूप में परिवर्तित हो जाना। इस क्षय रोग की जननी कांग्रेस है। किन्तु आज की तारीख में भाजपा इसकी सबसे बड़ी पोषक है। साथ ही शासक वर्गों से संबद्ध कोई भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल ऐसा नहीं है जो इस रोग से मुक्त हो। कई खानदानों की चौथी पीढ़ी परिवारवादी राजनीति के चलते राजनीति में ‘‘सैट’’ हो चुकी हैं। कई तो इतने काईयां है कि एकाधिक दलों में घुसपैठ किए बैठे हैं। लोकतंत्र के ठीक विपरीत चरित्र वाला यह वंशवाद असल में सत्ता के रजवाड़ाशाही एकाधिकार का आधुनिक स्वरूप है। पार्टियों की जीवनरेखा, कार्यकत्र्ता एवं आम समर्थक इसके चलते हाशिए पर पहुंच गए हैं। आम आबादी में से नई पीढ़ी के जहीन लोग इस के कारण राजनीति में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं।
इस बार का चुनाव राजनेताओं द्वारा सरेआम की गई अमर्यादित तथा महिलाओं के प्रति अभद्र टिप्पणीयों के लिए भी जाना जाएगा। ये गैर संजीदा माहौल बनाने में शासक वर्गों के सभी दल कम-ज्यादा जिम्मेदार हैं लेकिन इस घटियापन के ‘ध्वजवाहक’ एक बार फिर संघ-भाजपा नेता एवं भाजपा कार्यकत्र्ता ही रहे हैं। भाजपा विरोधी दलों की महिला राजनेत्रियों एवं विशिष्ट पहचान वाली पत्रकार महिलाओं के बारे में बेहुदा ब्यानबाजी एवं सोशल मीडिया पर गाली-गलौच से हर देखने-समझने वाले का सिर शर्म से झुक जाता है। दिल्ली के भाजपा उम्मीदवार का यहां के मुख्यमंत्री को भरी जनसभा में औरतों का दलाल कहना इस शर्मनाक व्यवहार की सबसे घटिया उदाहरणों में से एक है। यह अति खेदजनक है ऐसी निम्नस्तरीय भाषा का प्रयोग करने वाले सभी ‘महानुभाव’ टविटर तथा अन्य सोशल मीडिया साईटस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मित्रों की सूची में शामिल हैं। भाजपा ने अपना एक आई.टी. सैल बनाया हुआ है जिसके सदस्यों का मुख्य कार्य भाजपा तथा संघ के वैचारिक विरोधियों को अश्लील भाषा के इस्तेमाल से दबाना एवं निरउत्साहित करना है। चुनाव अभियान में भी यह तथाकथित आई.टी. विंग इसी ‘‘विशिष्ट कत्र्तव्य’’ के निर्वाहन में लगा रहा।
इन चुनावों में दलबदली के शर्मनाक कुकर्म का भी खूब बोलबाला रहा। यहां तक कि पश्चिम बंगाल में एक जनसभा में स्वयं यह दावा प्रधान मंत्री ने किया कि वहां के शासक दल तृणमूल कांग्रेस विधायक उनके संपर्क में हैं। प्रधानमंत्री का वक्तव्य दलबदली तथा विधायकों की खरीद-फरोखत को जायज ठहराने वाला असंवैधानिक तथा अशोभनीय बर्ताव था। यह भी सत्य है कि इस निंदनीय तरीकाकार को शासक वर्गों की सभी पार्टियों ने हतोत्साहित करने की बजाय उल्टा बढ़ावा दिया। राजनैतिक दलों का यह रवैया लोगों की घृणा का कारण दलबदली को खत्म करने की बजाए ताकत बख़्श रहा है।
फिल्मी हस्तियों, खिलाडिय़ों तथा अन्य सैलीब्रिटीज को आनन-फानन में सदस्यता देकर चुनाव में उतारने का कार्यकलाप भी इन चुनावों में खूब नकार में आया। इस कवायद में एक बार फिर भाजपा ही अग्रणी रही। लोगों की रोजाना जीवन की दुश्वारियों से कोरे इन सैलीब्रिटीज के मैदान में आ जाने से चुनाव लोक मुद्दों को विसार कर क्षणिक आनंद का साधन भर बन जाते हैं। ठीक ऐसी ही इन्हें लाने वाले राजनैतिक दलों की नीयत भी होती है। गौरतलब है कि देश की जमीन से जुड़े उच्च स्तर के कलाकारों, बुद्धिजीवियों, लेखकों इत्यादि ने भाजपा द्वारा फैलाई जा रही असहनशीलता, असहिष्णुता तथा द्वेष के लिए इसके विरुद्ध वोट करने की तर्कपूर्ण अपील की थी। सिर्फ देखने में अच्छे लगने वाले गोबर गणेश सैलीब्रिटीज को उतारने का भाजपा का एक उद्देश्य ऊपर वर्णित अपील की काट करने का भी था। बहरहाल हम ये कहना चाहते हैं कि यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए अति घातक है।
निष्पक्ष तथा अमनपूर्वक चुनाव सुनिश्चित करने हेतु अपनाई गई चुनाव आचार संहिता (मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट) द्वारा सुझाई गई सारी नैतिकता का दामन इस बार तार-तार कर दिया गया। तथ्यों से छेड़छाड़ या इन की पर्दादारी, झूठ-फरेब आदि सभी हथकंडे राजनेताओं का जैसे शुगल ही बन गया हो ऐसे प्रयोग किए गए। इन चुनावों में और बहुत कुछ किया गया सिवाए इसके कि लोगों के प्राथमिक मुद्दों और दशकों से चली आ रही विशालकाय मुसीबतों के बारे में कुछ चर्चा की जाती। यहां हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इस मामले में सभी शासक वर्गीय पार्टियों का किरदार एक जैसा ही मलीन है। परन्तु इस मामले में सबसे निंदनीय बर्ताव का प्रदर्शन शासक दल भाजपा ने किया। इस ने हर नियम कायदे का उल्लंघन करने तथा जन साधारण की बुनियादी जरुरतों के जिक्र से चुनाव अभियान को पूर्णत: मुक्त रखने के भरसक प्रयास किए।
एक और खतरनाक रूझान भी गहरे चिंतन-मनन की मांग करता है। देश की सर्व सांझी सेना की वर्दी एवं सेना द्वारा देश की सुरक्षा हेतु की कार्यवाहियों को संघ-भाजपा ने प्रचार समग्री बना लिया। ये कवायद लोक राज की मर्यादा के विरुद्ध तो है ही बल्कि गैर संवैधानिक भी है। हम देशवासियों को आगाह करना चाहते हैं कि बात यहीं पर नहीं रुकने वाली। संघ-भाजपा का असली लक्ष्य सेना तथा अद्र्ध-सैनिक बलों का संप्रदायीकरण करना है। इस तबाही को अभी से रोकने के हर संभव प्रयास सभी देशप्रेमियों को हर स्तर पर तुरंत ही आरंभ कर देने होंगे वर्ना बहुत देर हो जाएगी।
चुनाव आयोग की एकतरफा सरकार पक्षीय भूमिका ने भी इस बार लोकतंत्र का भला चाहने वाले सभी का दिल बहुत दुखाया है। चुनाव आयोग की निराशाजनक कारगुजारी के बारे में सार्वजनिक मंचों पर सवालिया निशान लगाने वाली पूर्व चुनाव आयुक्त टी.एन. शोषण की टिप्पणी ने आयोग को कटहरे में खड़ा कर दिया। आयोग की विश्वसनीयता तथा साख को इस कदर हानि हुई है कि लोग आम बातचीत में इसकी खिल्ली उड़ाने लगे हैं। इसे ‘इलैक्शन कमिशन आफ इंडिया’ की बजाए ‘क्लीन चिट कमिशन’ कहा गया। माडल कोड आफ कंडक्ट (चुनाव आचार संहिता) को कईयों ने मोदी कंट्रोल्ड कंडक्ट तक कहा। इस सारे उपहास के लिए स्वयं चुनाव आयुक्त (बहुसंख्या) जिम्मेदार हैं। निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने हेतु अपनाई गई भूमिका में ही इस बात पर जोर दिया गया है कि चुनाव में धांधलियों एवं स्थापित नियमों के उल्लंघन की सबसे ज्यादा संभावना शासक दल से होती है क्योंकि सारी मशीनरी उसी के निर्देशानुसार कार्य करती है। परन्तु चुनाव आयोग ने इस भूमिका में सुझाई गई समझ को पूरी तरह से दरकिनार ही कर दिया। यह अति दुखद सच्चाई है कि निवर्तमान लोकसभा चुनाव संजीदा मतदाताओं के मन में आशा की किरण जगाने की जगह पहले ही व्याप्त निराशा में और अधिक वृद्धि करने वाले ही साबित हुए हैं। यह चुनाव राजनेताओं के निम्न स्तरीय चरित्र, भद्दी शब्दावली के चलते लम्बे समय तक लोगों के मनमस्तिष्क में कड़वाहट पैदा करने का कारण बने रहेंगे।
मतदान से पहले एवं पश्चात चुनाव आयोग ने अधिक से अधिक मतदाताओं को मतदान केन्द्रों तक खींच लाने के लिये भांति-भांति के प्रयत्न किए। भाजपा की जीत के लिए दिन रात एक करने वाले आर.एस.एस. ने लोगों से ‘नोटा’ का विकल्प न चुनने की बहुत अपीलें की। लेकिन नोटा का बटन दबाने वालों कि संख्या पहले से कहीं अधिक बढ़ गई। इस बात का संकेत है, संजीदा लोग, खासकर युवा वोटर चुनाव प्रक्रिया से दूर होते जा रहे हैं। चुनाव अभियान के ऐन बीच में पंजाब यूनीवर्सिटी चंडीगढ़ तथा इस से जुड़े कालेजों के विद्यार्थियों द्वारा वयक्त किए गए विचार भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। इस स्थिति के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वो है शासक वर्गीय राजनैतिक दलों एवं इनके नेताओं की घटिया कारगुजारी तथा निंदनीय कार्यप्रणाली। अगर यही हाल रहा तो लोगों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी बढ़ाने की बातें कागजों पर ही रह जाएंगी।