मंगत राम पासला
मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनावों में भाजपा को भारी हार का मुँह देखना पड़ा है। संघ परिवार की प्रापेगंडा मशीनरी और मोदी सरकार का गुणगान करने वाले मीडिया की ओर से लोगों में ‘‘मोदी लहर’’ के अजेय होने का जो भ्रम खड़ा किया गया था, वह पूरी तरह तार-तार हो गया है। इस मतदान में विजयी पक्ष के जन-हितैषी चरित्र के बारे किसी भ्रम का शिकार होकर हवाई किले बनाने की कोई आवश्यकता नहीं, परंतु सांप्रदायिक-फाशीवादी शक्तियों की हार बहुत ही अर्थ भरपूर व स्वागत योग्य घटना है। विदेशी और देसी कॉर्पोरेट घरानों से दान के रूप में वसूले धन का चुनाव में प्रयोग तथा बजरंग दल, गऊ रक्षकों जैसे हथियाबंद गुंडा गिरोहों की सहायता के साथ डर व भय भरे बनाये गये माहौल का मुकाबला करके भी यदि इन राज्यों के बुद्धिमान वोटरों ने भाजपा को नकारा है, तो वे, यह सुखद ख़बर देने के लिए बधाई के पात्र हैं।
मोदी सरकार की आर्थिक मोर्चे पर बड़ी असफलताएं (जिनमें महँगाई और बेकारी में बेरोक वृद्धि, नोटबन्दी का आत्मघाती कदम, जी. एस. टी. के नाम पर आम लोगों, छोटे व्यापारियों व दुकानदारों पर लादा गया असहनीय बोझ और कृषि संकट को हल करने के प्रति अपनाया गया बेरुख़ी भरा ज़ालिमाना व्यवहार शामिल हैं) इसके साथ-साथ आर.एस.एस. व इससे सम्बन्धित संस्थाओं की ओर से भारतीय समाज में फैलायी जा रही सांप्रदायकता व रूढि़वाद का ज़हर भी भाजपा की हार का कारण बना। भाजपा व संघ परिवार के समस्त नेताओं की ओर से मोदी सरकार की कमज़ोरियों को छिपाने के लिए लोगों का ध्यान अनावश्यक व अलगाववादी सांप्रदायिक मुद्दों की ओर खींचने तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों, ईसाईयों व दलितों, औरतों को हिंसक कार्यवाहियों से डराने का भरपूर प्रयत्न किया गया, परंतु इस सब का मुकाबला करते हुए जिस तरह जनसमूहों ने अपनी अजेय शक्ति का इजहार किया है, उसने भविष्य में धर्म निरपेक्ष जनवाद, समानता व शोषण रहित समाज के सृजन के लिये आशा की किरण जगाई है। सभी प्रयत्नों, असीमित आर्थिक स्रोतों व सत्ता के दुरुपयोग के बावजूद भाजपा की हुई यह किरकिरी दिखाती है कि देश के आज़ादी संग्राम के दौरान तथा आज़ादी के बाद के सालों में धर्म निरपेक्षता, लोकतंत्र और आज़ादी की प्रचंड हुई ज्वाला अभी भी लोगों के दिलों में धधक रही है, चाहे ‘‘भगवां ब्रिगेड’’ की तरफ से इसको सांप्रदायिक अलगाववाद व वैचारिक द्वेष द्वारा बुझाने का प्रयास किया गया है। आर. एस. एस. ने इन अपवित्र कोशिशों को भविष्य में भी जारी रखना है, जिसके बारे लोगों को अग्रिम रूप में सचेत करने की आवश्यकता है।
भारतीय समाज का धर्म निरपेक्ष व जनवादी ढांचा कायम करने के लिये असंख्य लोगों ने कथनीय बलिदान व यातनायें सहन की हैं। इन भविष्यमुखी बुनियादी सिद्धांतों पर चलते ही भिन्न-भिन्न धर्मों, जातियों, सांप्रदायों, भाषाओं व संस्कृतियों के लोग एक ख़ूबसूरत एकता की माला का भाग बने हैं। मोदी शासन के दौरान आर. एस. एस. द्वारा इन अमूल्य विचारों पर ताबड़-तोड़ हमले किये गए हैं। संघ की तरफ से अंध-राष्ट्रवाद का धुंआंधार प्रचार, पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में कड़वाहट पैदा करना, देश के भीतर भिन्न-भिन्न धार्मिक सांप्रदायों के बीच बढ़ रही दुश्मनी व नफऱत भरा माहौल सृजन करने का मुख्य स्रोत है। गऊ-रक्षा, राम मंदिर का निर्माण, तीन तलाक, शहरों के नाम बदलने की कवायद तथा इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या को रद्द करके इसे सांप्रदायिक रंगत देने की मुहिम सब कुछ संघ की ‘‘धर्म आधारित हिंदु राष्ट्र’’ स्थापित करने के खेल का हिस्सा हैं। ऐसा ‘‘हिंदु राष्ट्र’’ देश की बहुसंख्यक हिंदु जनसंख्या के भी व्यापक हितों के साथ खिलवाड़ होगा, जो बेकारी के कारण दर-दर भटक रहे हैं, कर्ज के बोझ तले आत्महत्याएँ कर रहे हैं तथा आवश्यक स्वास्थ्य, शैक्षणिक व आवासीय सुविधाओं से महरूम हैं। ऐसा राजनीतिक ढांचा धर्म के पर्दे के नीचे फाशीवादी ढंगों से देश के धन कुबेरों, कॉर्पोरेट घरानों, काला बाज़ारियों व भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले मेहनतकश लोगों को दबाने का काम करेगा। इस लिए ऐसा बुरा समय आने से पहले ही इसको रोकने के लिए पेशकदमियां करने की आवश्यकता है।
पाँच राज्यों में से तीन राज्यों अर्थात् राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में, जहाँ भाजपा सत्ता में थी, को हराने के लिए लोगों को जो भी राजनीतिक पक्ष उपलब्ध था, उन्होंने उसे ही अपना सर्मथन दे दिया। इस नये राजनीतिक बदलाव में भी किसी तरह की भिन्न जन समर्थक आर्थिक नीतियों व पहलकदमियों का छवि नहीं दिखती है। हां, लोगों में कुछ राहत मिलने की एक आशा की भावना ने ज़रूर जन्म लिया है। इसलिए ज़रूरी है कि नयी बनीं सरकारों से उनकी ओर से किये गये वायदे पूरे करवाने के लिए एक मज़बूत और व्यापक जन आंदोलन विकसित किया जाये। राजस्थान, छत्तीसगढ़ व तेलंगाना में ऐसे आंदोलन के मज़बूत अंश हैं, जिन्हें और मज़बूत करने की आवश्यकता है। देश के भीतर 2019 के चुनावों के संदर्भ में यह बहस फिजूल व लोगों को गुमराह करने वाली होगी कि देश का प्रधानमंत्री नरेंदर मोदी या राहुल गांधी में से कौन होगा? परंतु सत्ताधारी पक्ष ऐसा माहौल बनाने का पूरा-पूरा प्रयत्न ज़रूर करेंगे। संघ परिवार भीतरी चुनाव जीतने के ‘कारीगर’ मोदी को पुन: सिंहासन पर बिठाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। सांप्रदायिक धु्रवीकरण, दंगे, सांप्रदायिक तनाव, प्रचार साधनों के द्वारा उत्तेजना पैदा करने वाली बहसें, सभी दांव इस्तेमाल करेंगे। धन व ल_मारों की कोई कमी ही नहीं है, संघी खजाने में। संघ परिवार यह झूठ प्रचार भी कर सकता है कि यदि मोदी पुन: ना जीता तो देश में आतंकवाद बढ़ सकता है व देश एक ‘‘मुस्लिम राष्ट्र’’ बन जायेगा। जबकि वास्तविक मुद्दा ‘‘हिंदु राष्ट्र’’ या मुस्लिम देश या खालिस्तान नहीं है, धर्म बल्कि लोगों की जीवन स्थितियों को तबाह कर रही साम्राज्यवाद निर्देशित नवउदारवादी नीतियों को बदल कर जन-पक्षीय व्यवस्था अपनाना है तथा देश के भीतर लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता की मज़बूती तथा देश की सुरक्षा को मज़बूत करना है।
इन सभी स्थितियों पर नजऱ डालते हुए देश के समस्त देशभक्त, लोकतांत्रिक व धर्म निरपेक्षता के सिद्धांतों में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए यह आवश्यक होगा कि उनका सारा ध्यान व प्रयत्न मोदी सरकार को हराने की ओर निर्देशित हों। क्योंकि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का विकल्प कांग्रेस पार्टी समेत किसी भी दूसरे पूंजीवादी जागीरदार दल के ऐजंडे पर नहीं है। इसलिए, देश की मेहनतकश जनता के पास जो महँगाई, बेकारी, कुपोषण और सामाजिक सुरक्षा का अभाव झेल रही है, अपनी मुश्किलों के हल के लिए सिफऱ् और सिफऱ् संघर्षशील वामपंथी व प्रगतिशील राजनीतिक शक्तियां ही एक कारगर हथियार हैं। इसलिए मोदी सरकार के विरुद्ध एक मज़बूत जन-आंदोलन खड़ा करने के साथ-साथ वामपंथी दलों की मज़बूती का एजेंडा भी हर समय जन चेतना का हिस्सा बनना चाहिए। इनकी मज़बूती के बिना न तो लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्षता के सिद्धांतों की रक्षा की जा सकती है तथा न ही नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की मार झेल रहे लोगों के लिये किसी बड़ी राहत की आशा की जा सकती है। सांप्रदायिक-फाशीवादी ताकतों की हार व जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध जूझने वाले जन-आंदोलनों की मज़बूती दो जुड़वां कार्य हैं, जिनको पूरा किये जाने की आवश्यकता है।
आज के दौर में समस्त विश्व का अनुभव भी यही दर्शाता है कि यदि किसी देश के सत्ताधारियों की नवउदारवादी नीतियों से परेशान लोग सरकारों के विरुद्ध किसी जन-उभार को जन्म देते हैं, तो किसी मज़बूत वामपंथी आंदोलन की अनुपस्थिति के कारण उस जन-उभार को दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी राजनीतिक शक्तियां अपहृत कर लेती हैं। ऐसी स्थिति में केंद्र (दक्षिणपंथ व वामपंथ के बीच) में खड़ी शक्तियों का झुकाव भी दक्षिणपंथ की ओर होना स्वाभाविक है। लोगों को तत्काल राहत तथा अंतिम रूप में मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण समाप्त करने के लिए वामपंथी शक्तियों की मज़बूती ही प्राथमिक शर्त है।