प्रो. जयपाल सिंह
दिसंबर माह में सम्पन्न हुए पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों के परिणामों से न सिर्फ इन सम्बधित राज्यों के लोगों के दिलो-दिमाग में प्रसन्नता का अनुभव हुआ, बल्कि पूरे देश तथा विदेश में बैठे भारतीयों के दिलों में एक नई आशा पैदा कर दी है। बेशक, इन चुनाव परिणामों ने देश के करोड़ों गरीब लोगों, जो गरीबी तथा अभावों के मारे दिन काटने को अभिशप्त हैं, के जीवन-निर्वाह पर कोई बेहतर प्रभाव नहीं डाला है। परन्तु, तो भी केन्द्र की नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार तथा इसके अति सांप्रदायिक, रूढि़वादी तथा साम्राज्यवादपरस्त संगठन, आर.एस.एस. की मची धूम को कुछ हद तक रोका जरूर गया है। जिस तरह इस सरकार द्वारा किए गए लम्बे चौड़े मिथ्या वायदे महज चुनावी जुमले सिद्ध हुए हैं, जिस तरह से इनके द्वारा बहला-फुसला कर आगे लगाये गए कुछ लोगों ने गाय रक्षा के नाम पर, गाय मांस विरोधी मुहिम के नाम पर कितने ही मासूम लोगों के प्राण ले लेने के पश्चात एक पुलिस निरीक्षक को भी मार दिया है, वो सब कुछ सामान्य शांतिप्रिय न्याय-पसन्द आवाम के लिए असहनीय है। मोदी सरकार ने डा. मनमोहन सिंह द्वारा लागू की गई जनहित विरोधी नवउदारवादी नीतियों को बड़ी तेजी से लागू करना शुरू किया है, जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं आम जनता की पहुंच से दूर होती गई तथा बेरोजगारों की रोजगार पा लेने की प्रतीक्षा और ज्यादा लम्बी। जिस का निकट भविष्य में कोई भी समाधान होता नही दिखाई देता। दूसरी तरफ देश के बेशकीमती संसाधनों की अंधाधुंध लूट तेज करके बहुराष्ट्रीय कारपोरेशन और भी ज्यादा मालामाल होती गई हैं। अन्ध-राष्ट्रवाद के नाम पर किसी को भी देशद्रोही होने का ठप्पा लगा कर उसको हिंसक भीड़तंत्र का शिकार बनाया जा रहा है। महिला उत्पीडऩ सब सीमाएं पार करता जा रहा है तथा दलितों पर जातिवादी हमलों में कई गुणा इजाफा हो गया है। कृषकों की ऋण माफी तथा स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने के वायदे पूरे करवाने के लिए कृषक राष्ट्र व्यापी धरने-प्रदर्शन करने, उपरांत दिल्ली की सडक़ों पर कई बार आ चुके हैं। लेकिन मोदी सरकार अपने कुफर राज से, मन्दिर-मस्जिद तथा ‘‘बांटो तथा राज करो’’ जैसे अहंकार भरे कृत्यों से टस से मस नहीं हुई। उल्टा योगी अदित्यनाथ जैसे अति दर्जे के सांप्रदायिक मुख्यमंत्री को स्टार प्रचारक बना कर इन चुनावों में उतारा गया। इस पृष्टभूमि में बी.जे.पी. का, अपने परम्परागत गढों मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान में पराजित होना, लोगों के लिए लम्बी अनावृष्टि के पश्चात चंद शीतल फुआरों जैसा सुखद अहसास है।
लेकिन इन चुनावों में वामपंथ की पार्टियों ने क्या गंवाया तथा क्या पाया व उनके लिए कौन से सबक मिलते हैं इस लेख का उद्देश्य है। इस उद्देश्य के लिए कम से कम दो राज्यों के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करना जरूरी है। एक राजस्थान तथा दूसरा तेलंगाना। राजस्थान में बीजेपी की वसुंधरा राजे सरकार के दौरान हुई ज्यादतियों तथा वायदा-खिलाफियों के खिलाफ मुख्य विपक्षी दल रहीे कांग्रेस पार्टी ने घोषित 199 चुनाव परिणामों में से 99 सीटें जीत कर सरकार बनाई है तथा उसने कुल 39.3 प्रतिशत मत हासिल किए हैं, जबकि बीजेपी को 73 सीटें तथा 38.3 प्रतिशत मत प्राप्त किए, बहुजन समाज पार्टी ने 4 प्रतिशत वोटों से 6 सीटें, सीपीआई (एम) ने 1.2 प्रतिशत वोटों से 2 सीटें, बहुजन ट्राईबल पार्टी ने 0.7 प्रतिशत वोटों से 2 सीटें, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी नें 2.4 प्रतिशत वोटों के साथ 3 सीटें, राष्ट्रीय लोक दल ने 0.3 प्रतिशत वोटों के साथ 1 सीट तथा आजाद उम्मीदवारों ने 9.5 प्रतिशत वोटों के साथ 13 सीटों पर विजय पाई। जबकि ‘आम आदमी पार्टी’ 0.4 प्रतिशत मत हासिल कर कोई भी सीट जीत नहीं सकी। उपरोक्त से यह साफ है कि बेशक बीजेपी हार गई है, फिर भी इसको मिले 38.3 प्रतिशत मत सारे प्रगतिशील तथा लोकतांत्रिक सोच रखने वालों के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। क्योंकि कांग्रेस पार्टी से बीजेपी के सम्प्रदायिक संगठनों के खिलाफ समझौताहीन विचारधारक लड़ाई की कोई बड़ी उम्मीद नहीं की जा सकती। लगभग सारी ही वामपंथ की पार्टियां चाहे वो चुनावों में भाग लेती हैं अथवा नहीं, बीजेपी, आर.एस.एस के विस्तृत होते जा रहे आधार से संजीदा तौर पर चिंतित हैं तथा उसके विरूद्ध आवश्यक संघर्ष भी वही कर सकती हैं। हमारे देश के अन्य बहुत सारे प्रगतिशील तथा जनवादी सोच रखने वाले लोग हैं, जो बेशक वामपंथी न भी हों बल्कि वामपंथ के आलोचक भी हों, वो भी इस संघर्ष में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। इन चुनावों से पहले ऐसी ही एक अच्छी शुरूआत हुई थी, जब सी.पी.आई, सी.पी. आई. (एम), सी.पी.आई. (एम.एल.) लिबरेशन, एम.सी.पी.आई. ने अन्य के साथ मिलकर बी.जे.पी. विरोधी तथा कांग्रेस विरोधी ‘राजस्थान डैमोक्रेटिक फ्रंट’ बनाया था। लेकिन धीरे-धीरे इसमें दरारें पड़ती गईं जिसके फलस्वरूप कई जगहों पर सी.पी.आई., सी.पी.आई.(एम), सी.पी.आई.(एम.एल.) लिबरेशन, ने एक दूसरे के खिलाफ भी चुनाव लड़ा। इस सब के बावजूद भी सी.पी.आई.(एम) के दो उम्मीदवार निर्वाचित हो गए। डुंगरगढ़ से साथी गिरधारी लाल ने 72376 मत लेकर करीब 24000 मतों से कांग्रेस के उम्मीदवार को हराया तथा यहां पर बीजेपी तीसरे स्थान पर रही। इसी तरह भादरा हल्के से कामरेड बलवान पूनिया ने 73725 मत ले कर करीब 21000 मतों से बीजेपी को हराया यहां कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही। धनतारामगढ़ क्षेत्र से चाहे राजस्थान के प्रसिद्ध किसान नेता कामरेड अमराराम कांग्रेस से चुनाव हार गए, परन्तु फिर भी उन्हें 45186 मत मिले। इसी तरह दो हल्कों डोंढ से कामरेड पम्मा राम 61089 वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे जबकि बीजेपी उनसे 15000 मत कम पा कर तृतीय स्थान पर रही तथा इसी तरह राऐ सिंह नगर हल्के से कामरेड शिओपत राम भी 43264 मत हासिल कर दूसरे स्थान पर रहे। इसी तरह पांच छह क्षेत्रों में सीपीआई(एम) के उम्मीदवारों ने 10000 से अधिक मत प्राप्त किए है। सीपीआई के उम्मीदवारों को भी इसी तरह के सम्मानजनक मत मिले हैं। जबकि यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि वामपंथ की पार्टियों तथा उनके उम्मीदवारों के पास संसाधन के नाम से कांग्रेस तथा बीजेपी के मुकाबले कुछ भी नहीं, इस सब के बावजूद इन दोनों संसाधन सम्पन्न दलों को चुनावों में हराना व शानदार मत हासिल कर पाने के लिए बधाई देनी तो बनती है। इसी तरह एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पिछले लम्बे समय से इन दलों के उम्मीदवार किसानों की पानी, फसलों के उचित दामों तथा कर्जा माफी जैसे मुद्दों पर चले रक्तरंजित संघर्ष करते रहे हैं। उन्होंने आवाम का विश्वास जन-आंदोलनों द्वारा ही जीता है, चाहे वो मनरेगा मजदूरों का हो, चाहे विद्यार्थियों का हो। वैसे भी किसी वामपंथी पार्टी के लिए जन-संघर्ष ही असली रास्ता हैं, संसद/विधानसभा/ अन्य चुने जाने वाली संस्थाओं के लिए चुनाव, उन जनसंघर्षों को और बल प्रदान करने के लिए ही लड़े जाते हैं तथा जीतने की अवस्था में अपनी सीमित शक्ति अनुसार जनता को राहतें भी दी जाती हैं।
इसी तरह तेलंगाना, यहां किसी समय किसानों का शानदार सशस्त्र संघर्ष लड़ा गया था तथा बड़ी जीतें प्राप्त करने के उपरान्त नई बनी सरकार द्वारा उसे उल्टा दिया गया था, में चुनाव दृश्य अलग तरह का था। यहां एक तरफ वहां की क्षेत्रीय पार्टी तेलंगाना राष्ट्रीय समिति (टी.आर.एस.) थी तथा दूसरी ओर कांग्रेस तथा श्री चन्दरबाबू नायडू की पार्टी तेलगू देशम पार्टी का मोर्चा, जिसमें सी.पी.आई. भी एक भागीदार थी, तीसरी ओर बीजेपी के मध्य मुख्य मुकाबला था। यहां सीपीआई(एम) तथा एमसीपीआई (यू) ने कुछ दलित पार्टियों के साथ मिलकर बहुजन लैफ्ट फ्रंट बना कर कुछ सीटों पर चुनाव लड़ा। इस चुनाव में 119 सीटों में से टीआरएस को 46.9 प्रतिशत मत तथा 88 सीटें, टीडीपी को 3.5 प्रतिशत वोट से 2 सीटें, एआईएमआईएम, जो ओसाबूदीन ओबैसी की पार्टी है, ने 2.7 प्रतिशत मत हासिल कर 7 सीटें, कांग्रेस ने 28.47 प्रतिशत मतों से 19 सीटें, आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक ने 0.8 प्रतिशत से एक सीट तथा बीजेपी ने 7 प्रतिशत वोटों के साथ 1 सीट जीती। जबकि 3.3 प्रतिशत मतों से सिर्फ एक आजाद उम्मीदवार जीत सका। यहां, किसी दक्षिणी राज्य में बीजेपी को मिले 7 प्रतिशत वोट चिंता का विषय तो हैं लेकिन स्थानीय दलों की भूमिका को भी ध्यान से देखना बनता है। इस तरह कोई भी वामपंथी पार्टी किर्सी भी उम्मीदवार को विजय नहीं दिलवा पाई है, पर यह बात साफ हो गई है कि सीपीआई, जो कांग्रेस तथा टीडीपी गठजोड़़ का हिस्सा थी, भी कोई सीट जीत नहीं पाई। वाइरा क्षेत्र से विजयी आजाद उम्मीदवार की 52650 वोट के मुकाबले टीआरएस ने 50637, सीपीआई ने 32753 तथा सीपीआई (एम) के उम्मीदवार ने 11375 वोट प्राप्त किए। जबकि हुसनाबाद हल्के में 46553 मत लेकर दूसरे स्थान पर रही, यहां टी आर एस के उम्मीदवार को 117083 मत मिले। परन्तु सीपीआई(एम), बी.एल.एफ. के हिस्सेदार के तौर से भद्राचलम से 14228 मत ले गई। यहां सीपीआई(एम) तथा एमसीपीआई (यू) ने कई जगह सम्मानजनक मत प्राप्त किए। हालांकि आम तर्जुबा है कि जब दो बड़ी पार्टियों की लड़ाई हो तो छोटी तथा वाम पार्टियों को हाशिऐ पर ही रहना पड़ता है, इसके बावजूद राजस्थान तथा तेलंगाना का सबक दर्शाता है जहां बीजेपी को हराना अति आवश्यक है, वहां वामपंथ तथा प्रगतिशील जनवादी हल्कों की लामबंदी द्वारा जन-संघर्षों को तीखा किया जाए। सिर्फ जन-संघर्ष तथा इन में वामपंथियों की ठोस भूमिका ही उन के प्रसार तथा सांप्रदायिकता की आंधी को रोक सकते हैं। इन जन-संघर्षों का केन्द्र-बिन्दू नवउदारवादी नीतियों के विरूद्ध लड़ाई जन-संघर्षों द्वारा लडऩा है।
पंजाब के लिए सबक और भी बड़ा है। यहां कैप्टन अमरिन्दर सिंह की सरकार ने भी मोदी की तरह लम्बे चौड़े वायदे कर के, अब उन्हें भुला दिया है। किसानों के कर्जे की माफी, भूमिहीन परिवारों परिवारों को 5-5 मरले के रिहाइशी प्लाट, घर घर में रोजगार, नशों का खात्मा, रेत बजरी माफिया पर नकेल डालने हित कोई भी वास्तविक संघर्ष, सिर्फ वाम दल ही लड़ सकते हैं। यदि वो भी मोदी को हराने के नाम पर, जो कि निहायत आवश्यक है, कांग्रेस का हाथ पकड़ लें तो पंजाब के लोगों के हितों की रखवाली कौन करेगा तथा किस से करेगा? राजस्थान के वामपंथियों के पास कांग्रेस-बीजेपी के खिलाफ चुनाव लडऩे के कारण, अब वहां की सरकार द्वारा उठाए गए किसी जन हित विरोधी कदमों के खिलाफ लडऩे का नैतिक अधिकार है। परन्तु, यदि कांग्रेस की सहायता से दो की बजाए पांच-सात विधायक जितवा भी लिए होते तो लोगों में आने वाली लड़ाई के लिए उन के प्रति वो विश्वसनीयता नहीं थी बननी, जो अब है। इसलिए सब वामपंथियों को पंजाब में जन संगठनों का आपसी तालमेल बना कर, प्रगतिशील तथा लोकतांत्रिक वर्गों के सहयोग से विशाल लामबन्दी करके बीजेपी, आर.एस.एस. की सांप्रदायिकता के साथ ही इन की जन-विरोधी नीतियों के विरूद्ध संघर्ष करना बनता है।
(अनुवाद : सुदर्शन कंदरोड़ी)