(लेखक, डाक्टर प्रभात पटनायक, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफैसर एमीरेट्स हैं व विश्व प्रसिद्ध माक्र्सवादी अर्थशास्त्री हैं। उनका यह लेख 17 नवंबर 2017 को ‘द वायर’ में प्रकाशित हुआ था। वहां से धन्यवाद सहित लिया जा रहा है।)
भारत में, क्योंकि वामपक्ष यानि कि कम्युनिस्टों की शुरूआत महान अक्तूबर क्रांति (रूसी क्रांति) से जुड़ी हुई है, इसीलिए सोवियत यूनियन के बिखराव से, इनके बारे में अक्सर ही शंकाएँ खड़ी की जाती हैं। ऐसी बहसों में, लाजमी प्रश्न को गलत ढंग से पेश किया जाता है। क्योंकि प्रश्न यह नहीं है कि इस देश में वामपंथियों का कोई भविष्य है या नहीं ? बल्कि प्रश्न यह है कि क्या वामपंथियों के बिना इस देश का कोई भविष्य है।
नवउदारवादी पूँजीवाद, जिसे कि दूसरे बहुत से देशों की तरह भारत ने लम्बे अरसे से अपनी आर्थिक व्यवस्था के तौर पर अपनाया हुआ है, अब एक बंद गली में आ कर रूक गया है। 2008 में शुरू हुई आर्थिक मंदी, जो कि ना केवल बड़े पूँजीवादी देशों में जारी है, बल्कि अब इसने भारत तथा चीन को भी अपनी जकड़ में ले लिया है, जो कि पहले इस संकट से सुरक्षित लगते थे। एक ही ढंग जिस के द्वारा इस नवउदारवादी ढांचे में कोई नया विश्वव्यापी उभार पैदा किया जा सके, जहाँ कि वित्तीय साधनों द्वारा सरकार की तरफ से माँग प्रबंधन में दखलअंदाजी की घोर मनाही है, वह है, संपत्ति की बढ़ाई हुई कीमतों द्वारा एक नया बुलबुला पैदा करना। परंतु ऐसे बुलबुले आर्डर पर तैयार नहीं किये जाते और अगर कहीं अचानक ये बन भी जाएँ तो इसके आवश्यक तौर पर फूट जाने से विश्व पूँजीवाद का निरंतर विकासहीनता का समय हमारे सामने है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था भी आवश्यक तौर पर विकासहीनता की स्थिति में ही रहेगी। नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा बिना सोचे समझे की गई नोटबंदी तथा जी.एस.टी. जैसी दखलअंदाजियों से यह समस्या और भी उलझावपूर्ण हुई है। जी.एस.टी. का सबसे उभरा हुआ लक्षण गैर-अनौपचारिक क्षेत्र पर टैक्सों का भार और अधिक बढऩा है।
इससे पहले भी, जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष तौर पर बेमिसाल दरों से विकास कर रही थी, तब भी कृषि सहित लघु उत्पादन लगातार सिकुड़ता जा रहा था, इसके फलस्वरूप पिछले दो दशकों में तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्याएँ की हैं। ऐसा इसलिये भी हुआ क्योंकि नवउदारवादी ढांचे का अर्थ, जैसी की आम धारणा पाई जाती है, सरकार की तरफ से दखल देना छोडक़र, ‘‘चीजों को बाजार की दया पर छोड़ देना नहीं है’’, बल्कि इसके विपरीत इस का अर्थ यह है कि सरकार की ओर से केवल साम्राज्यवादी पूँजी के हितों की ही रक्षा करना, जिस के साथ हमारी घरेलू कार्पोरेट वित्तीय पूँजी बड़ी हद तक आत्मसात हुई पड़ी है। इसका मतलब सरकार द्वारा लघु उत्पादन, पूँजीवादी क्षेत्र द्वारा मनमर्जी से झपट लिये जाने के लिये छोड़ दिया जाता है। जिससे कि वही विधी शुरू हो जाती है, जिसे महान कार्ल माक्र्स ने ‘‘पूँजी के प्राथमिक जमावड़े’’ का नाम दिया था, जो हमें उपनिवेशिक दौर की ऐसी ही विधियों की कड़वी याद दिलाती है।
कृषि का मुनाफा, पुराने सरकार निर्देशित दौर की तुलना में, तेजी से गिरा है तथा कीमतों के उतराव-चढ़ाव, विश्वस्तरीय उलटफेर इस क्षेत्र को निरंतर आ घेरते है; क्योंकि इस की, विशेषतया व्यापारिक फसलों की विश्व बाजार से सुरक्षा का फातिहा पढ़ दिया गया है। तंग आये हुए कृषक, रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में शहरी अर्थव्यवस्था की ओर जाना शुरू करते हैं, किन्तु रोजगार के अवसरों में नग्णय वृद्धि के चलते, रोजगार ढूँढना बेहद कठिन है। इस के विपरीत पहले से मौजूद श्रमिक झुंडों में और बढ़ौत्तरी करते हैं तथा इसका प्रकटीकरन अस्थायी रोजगार, अनियमित रोजगार में छुपी हुई बेकारी तथा छोटी-मोटी धंधाकारी (जो छुपी हुई बेरोजगारी का ही एक रूप है) में होता है।
इस के फलस्वरूप, कृषकों की मंदहाली बाकी श्रमिक जनसंख्या की विशालतर मंदहाली को जन्म देती है। इन श्रमिकों में संगठित क्षेत्र के श्रमिक भी शामिल हैं। क्योंकि निरंतर बढ़ते श्रम भंडारों के कारण ट्रेड यूनियनों की सामू्हिक सौदेबाजी की क्षमता भी घटती है।
इस प्रकार, नवउदारवाद लघु उत्पादन को आपूर्ति की तरफ से भी तथा उपज की माँग की तरफ से भी अर्थात दोनों ओर से बुरी तरह प्रभावित करता है। उत्पादकों (पैदा करने वाले) की आमदनियों को निचोड़ कर आपूर्ति को प्रभावित करता है तथा कृषक वर्ग की समस्त आबादी की आमदनों में गिरावट से उत्पादन की माँग में गिरावट आती है। भारत में 1990-91 तथा 2013-14 के मध्य, जब कि दोनों वर्षों में भरपूर फसल हुई, खाद्य वस्तुओं की प्रति व्यक्ति पैदावार विकास हीनता की स्थिति में रही, जिस का अर्थ है कि आपूर्ति में कमी आयी है। जबकि खुराक की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में चार फीसदी की कमी आई है, जिस का मतलब है कि श्रमिक आबादी की खरीद शक्ति सिकुड़ी है।
अंतराष्ट्रीय खाद्य नीति व अनुसंधान संस्थान के सूचकाँक से गत दिनों भारत की भुखमरी की दयनीय स्थिति उजागर हुई है। अति विकसित देशों को छोडक़र बाकी बचे 119 देशों में भारत भुखमरी में 100वें नम्बर पर है। इस भुखमरी के बारे में सब से कम जाना तथ्य यह है कि हाल के उन वर्षों में जब भुखमरी देश को बुरी तरह से विचलित कर रही थी, तब विश्व बाजार में खाद्यान्न बेचने वालों में भारत एक महत्वपूर्ण देश रहा है, जबकि अमीर देश इस खाद्यान्न को पशुओं की खुराक के रूप में प्रयोग करते हैं।
इसी प्रकार, सैद्धांतिक रूप में, गरीबी को भी भारत में खुराक से मिलती ऊर्जा यानि कि कैलोरीका से जोड़ कर देखा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में 2200 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरीज प्रति व्यक्ति प्रति दिन की आवश्यकता है। 1993-94 से लेकर 2011-12 की समयावधि में कम कैलोरीज प्रति व्यक्ति प्रति दिवस लेने वाली ग्रामीण जनसंख्या 58 प्रतिशत से 68 प्रतिशत तक पहुँच गई है। यही हाल शहरी क्षेत्रों में भी है। इसलिए नवउदारवाद के दौर में गरीबी उन्मूलन के बड़े-बड़े दावे सिरे से निराधार हैं।
विश्व संकट के भारत में फैल जाने से लघु उत्पादन का क्षेत्र और भी तेजी से सिकुड़ा है। मोदी सरकार के प्रथम कार्याकाल के पहले तीन सालों 2013-14 तथा 2016-17 के बीच कृषि पर गुजारा करने वाली आबादी, जो कि देश की कुल जनसंख्या का लगभग आधा भाग है, की प्रति व्यक्ति आय धेला भर भी नहीं बढ़ी बल्कि इसमें कई दर्जा गिरावट आई है। जबकि इसमें नोटबंदी के कृषि अर्थव्यवस्था पर पड़े कुप्रभावों का आकलन शामिल नहीं है। जिस के चलते उत्पादकों के सिर कर्ज का बोझ और भी बढ़ा है।
दूसरी तरफ, यह एक आम जाना जाता तथ्य है कि जनसंख्या के एक प्रतिशत उपरी भाग की आमदनियों तथा संपत्तियों में अकथनीय वृद्धि हुई है। सचमुच ही आमदनियों में इन अमीरों का हिस्सा सन् 1922, जिस वर्ष आमदनी कर लागू हुआ था से लेकर अब तक के किसी भी समय से अधिक है।
इस मंदी (संकट) ने ना केवल लघु उत्पादकों को प्रभावित किया है बल्कि उन मध्यमवर्गीय भागों को भी अपनी चपेट में लिया है, जिन वर्गों की अधिसंख्य आबादी के लिए अब तक नवउदारवाद लाभकारी रहा है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार शर्तों के घेरे में कच्चा माल पैदा करने वालों की तुलना में ओद्यौगिक माल पैदा करने वालों के पक्ष में तब्दीली हुई है। सरकार के श्रम ब्यूरो के आँकड़े दर्शाते हैं कि 2013-14 तथा 2015-16 की अवधि में पन्द्रह साल से अधिक आयु के लोगों की सामान्य नौकरियों वस्तुत: 37.4 लाख कम हुई हैं। यहां तक कि अब शहरी मध्यमवर्गीय आबादी के सम्मुख भी बेरोजगारी का गंभीर खतरा मुँह बाये खड़ा है।
यह दृश्य है, जो केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, जिसने की विश्व स्तर पर फासीवाद के मौजूदा रूझान को पैदा किया है। हालांकि अभी तक फासीवाद राज्य को दर्शाती कोई भी संस्था अस्तित्व में नहीं, परंतु हमारे देश सहित कई देशों में फासीवादी तत्व सत्ता पर विराजमान है, जिन का लक्ष्य फासीवादी राज्य स्थापित करना है। वैसे तो हर पूँजीवादी समाज में फासीवाद के तत्व छोटे-मोटे रूप में मौजूद होते ही हैं, परंतु संकटकालीन स्थितियों में ये तत्व केंद्रीय भूमिका में आ जाते हैं। वह भी तब जब स्थापित पूँजीवादी राजनैतिक दल इस संकट का कोई भी हल तलाशने में नाकाम रहते हैं, तथा मजदूरवर्गीय पार्टियाँ इस कद्र कमजोर व दीन हीन बना दी जाती हैं कि वह इस रिक्तता को पूर्ण ही नही कर पायें। यह फासीवादी तत्व बड़े व्यापारिक घरानों की सहायता से ही सभी कुछ करते हैं तथा इनका पूँजीपति अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिये किसी भी संभावित खतरे के विरूद्ध बांध (बाड़ या दीवार) के रूप में इस्तेमाल करते हैं। संकट के हल का इनका एजंडा किन्हीं ठोस कदमों पर आधारित नहीं होता बल्कि किसी व्यक्ति को मसीहा की तरह उभारना तथा बाकी सभी को निर्दयता से दबाने का होता है, विशेषतया: किसी लाचार अल्पसंख्यक समूह को जिसे कि इस संकट के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है।
निस्संदेह, जो कुछ हम आज देख रहे हैं, वो 1930 वाले फासीवाद का दोहराव नहीं है। यह हर देश की अपनी अलग विशेषताओं के अनुरूप होता है। परन्तु इसमें फासीवाद के सारे लक्षण मौजूद हैं जैसे कि किसी विशेष उत्तमता की उत्पत्ति (पश्चिम में गोरी नस्ल की तथा यहाँ हिंदुत्व की उत्तमता); तर्कहीनता/आस्था का दैवीकरण (उत्तमता तथा किसी एक को मसीहा के तौर पर उभारने के रूप में दृश्यमान होना); एक जमीनी स्तर का आंदोलन (जो कि इसे साधारण एकाधिकारवाद/तानाशाही से अलग दर्शाता है); तथा बड़े पूँजीपतियों के साथ गठबंधन (मोदी की प्राप्ति यह है कि उसने भारतीय बड़े पूँजीवादियों तथा आर.एस.एस. के मध्य एक गठबंधन कायम किया है)।
फिर भी 1930 के और आज के फासीवाद में एक बड़ा अंतर भी है। 1930 का दौर साम्राज्यवादियों की परस्पर तीखे अंर्तविरोधों का दौर था जिसके चलते जहाँ भी फासीवाद सत्ता पर काबिज हुआ, उसने अपने-अपने देश का बड़ा पैमाने पर सैन्यीकरण किया, जिस पर विशाल मात्रा में खर्च करने से वास्तव में इन देशों की अर्थव्यवस्थायें संकट से बाहर आईं। जापान ने 1931 तथा जर्मनी ने 1933 में सैन्यीकरण द्वारा महा संकट पर काबू पाया, जब कि तुरंत ही युद्ध छिड़ गया। परंतु आज के संसार में साम्राज्यवादियों के आपसी अंर्तविरोध उतने तीव्र नहीं हैं, क्योंकि विश्वीकृत की हुई पूँजी नहीं चाहती कि विश्व एक-दूजे के दुश्मन आर्थिक क्षेत्रों में टूट कर रह जाए, जिस के चलते उस के खुले (आजाद) आवागमन में अवरोध पैदा हों। इसलिए बड़े पूँजीपति बेशक कुछेक देशों में फासीवाद का समर्थन करते हैं पर फिर भी नवउदारवादी ढाँचे को जड़ से कमजोर नहीं करना चाहेंगे। भारत में मोदी शासन की सुपर नवउदारवाद के प्रतिबद्धता से यह साफ जाहिर है। इससे किसी भी संकट पर काबू नहीं पाया जा सकेगा।
इस तरह से हमारा देश आज एक बंद गली में फंस गया है :
निरंतर गहराता जा रहा आर्थिक संकट जिस का नवउदारवाद में कोई समाधान नहीं; लोकतंत्र का ह्रास जो लोगों के राजनैतिक अधिकारों पर खतरे पैदा करता है; तथा हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों का सांप्रदायिक एजंडा व जातिवादी प्रणाली के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता के चलते, एक सामाजिक प्रतिक्रान्ति जिससे उन सभी सामाजिक उपलब्धियों का अंत हो जाएगा जो कि बीते 100 वर्षों में हासिल हुई है; जिन्हें कांग्रेस के 1930 के प्रस्ताव में संकल्पबद्ध किया गया था।
उदारवादी पूँजीवादी राजनैतिक संरचनाएँ, जो कि नवउदारवाद के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं इस बंद गली से बाहर निकलने की राह खोजने में असमर्थ हैं। केवल वामपंथ ही इस दिशा में कोई राह निकाल सकता है; क्योंकि वे ही नवउदारवादी पूँजीवाद से अलग हट कर वैकल्पिक एजंडा प्रस्तुत कर सकता है। उन्हें, जनताँत्रिक अधिकारों की रक्षा हेतु तथा जन साधारण को राहत प्रदान करने वाले किसी न्यूनतम कार्यक्रम के लिए, सभी फासीवाद विरोधियों को एकजुट करना होगा। क्योंकि नवउदारवादी व्यवस्था के ढांचे में ऐसे न्यूनतम कार्यक्रम को लागू करने की विधि में अनेकों अंतर्विरोध उभरेंगे, इसीलिए वामपंथियों को बदलते राजनैतिक गठबंधनों द्वारा ऐसे ढांचे पर कदम-ब-कदम काबू पाना होगा।
मेरा मानना है कि, ऐसे न्यूनतम कार्यक्रम के केन्द्र बिंदु के तौर पर जनताँत्रिक संस्थाएँ तथा जनताँत्रिक अधिकारों की बहाली के साथ-साथ ही सर्वपक्षीय न्याय आधारित तथा आर्थिक सुधारों के प्रति सौहार्द रखने वाली संस्थाओं को भी मजबूत करना होगा। इनमें खाद्य सुरक्षा अधिकार, रोजगार का अधिकार, निशुल्क तथा उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवा का अधिकार (जो कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं के अंतर्गत दिया जा सकता है), निशुल्क एवं उच्चस्तरीय शिक्षा का अधिकार (जो कि नजदीक के सरकारी स्कूलों में दी जा सकती है), उचित मात्रा में बुढ़ापा पैन्शन तथा अपंगता लाभ इत्यादि का अधिकार शामिल हैं। इस सभी पर देश के सकल घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) का 10 प्रतिशत से भी कम भाग खर्च होगा, परंतु ऐसा करते हुए हम वर्तमान मंदी के हालात से बाहर आ पाएँगे। इस दिशा में केवल एंव केवल वामपंथ ही नेतृत्व प्रदान कर सकता है।