प्रो. जयपाल
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 अक्टूबर 2018 को गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार सरोवर के पास, भारत के पहले गृह मंत्री श्री वल्लभ भाई पटेल, जिसका भारत का शासक-वर्ग, पूंजीपति-सामंतवादी वर्ग तथा उसका समर्थक मीडिया सरदार पटेल तथा लोह पुरूष के नामों से भी गुणगान करता है, की मूर्ति से पर्दा हटाने की रस्म अदा की। इस मूर्ति का नाम ‘‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’’ अर्थात ‘एकता की मूर्ति’ रखा गया है। इस की उंचाई 182 मीटर है तथा यह अब तक की दुनियां की सबसे ऊंची मूर्ति है न कि इमारत। सबसे ऊंची इमारत तो दुबई देश में स्थित 162 मंजिलों वाली ‘बुर्ज-खलीफा’ है, जिसे 2010 में तैयार किया गया था। इस की उंचाई 828 मीटर है जो कि इस मूर्ति से चार गुणा से भी अधिक ऊंची है, अन्य बहुत सी इमारतें इस से भी ऊंची हैं, जिन में बहुत सी चीन में बनी हुई हैं। सन् 2020 में साऊदी अरब में पूरा किये जाना वाला ‘जद्दाह टावर’, 1008 मीटर की ऊंचाई तथा 167 मंजिलों से दुनिया की सर्वोच्च ऊंची इमारत का स्थान ले लेगा।
सबसे ऊंची मूर्ति की उपाधि प्राप्त करने की दौड़ में लगे मोदी के दिमाग में अमेरिका स्थित ‘स्टैच्यू आफ लिबर्टी’ था, जो कि वहां के शहर न्यूयार्क में स्थित है तथा फ्रांस की राजधानी पैरिस में स्थित ‘आईफिल टावर’ जैसी वस्तुयें हैं। यह मुकाबला बिल्कुल ही निराधार है, क्योंकि ये दोनों ढांचे उन देशों में प्रचारित राष्ट्रीय उपलब्धियों को दर्शाते हैं। अमेरिका के बहादुर लोगों ने मानवीय स्वतंत्रता के लिये काफी लंबी लड़ाईयां लड़ीं तथा 1886 में यह मूर्ति स्थापित की जबकि ‘आईफिल टावर’ 1889 ईस्वी में फ्रांस की क्रांति की 100वीं वर्षगांठ के अवसर पर बनाया गया। वैसे तो ऐसी मूर्तियां काफी लंबे समय से अपने असली अर्थ गंवा बैठी हैं। फिर भी यदि लोगों के खून पसीने की कमाई का पैसा पानी के समान बहाना ही था तो अंग्रेजी साम्राज्य के जुल्मों के विरुद्ध भारतीय लोगों के संघर्ष के प्रतीक ‘जलियांवाला बाग’ के स्थान पर स्मारक या इस प्रकार की ही कोई मिलती जुलती यादगार बनाई जा सकती थी, जहां हिंदुओं, सिक्खों, मुसलमानों, दलितों तथा औरतों का सांझा खून बहा है तथा इस प्रकार की यादगार समूचे भारतीय लोगों की एकता को मूर्तिमान करती। लेकिन मोदी का संकल्प तो बी.जे.पी.-आर.एस.एस. की विचारधारा के अनुसार सिर्फ देश की भौगोलिक एकता तक ही सीमित है तथा ये लोग लोगों की एकता के तो शुरू से ही दुश्मन हैं। उनके लिये सरदार पटेल सिर्फ इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि उसने अलग-अलग रियासतों को मिला कर भारत का भाग बनाया, जबकि इन में बहुत सी रियासतों के लोग दो लड़ाईयां लड़ते रहे हैं। एक रियासत को राजाओं के विरुद्ध तथा दूसरी अंग्रेजी के विरुद्ध क्योंकि आर.एस.एस. अंग्रेजों की घोर समर्थक रही है इसलिये अंग्रेजों के विरुद्ध लोगों की एकता उस के लिए कोई महत्त्व नहीं रखती। इसलिए ही इस मूर्ति का नाम अमेरिका में स्थित ‘स्टैच्यू आफ लिबर्टी’ की तर्ज पर ‘स्टैच्यू आफ यूनिटी’ रख तो लिया गया है, लेकिन इस यूनिटी या एकता में से लोग तो गायब हैं।
अब जरा सरदार पटेल को ओर आते हैं। वह देश की आजादी के संग्राम की अग्रणी राजनैतिक पार्टी, कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में से एक थे। क्योंकि देश की आजादी साम्राज्यवादियों तथा देश के पूंजीपतियों-जागीरदारों के हितों के लिए किया गया एक समझौता था, तथा सरदार पटेल भी उस में बराबर के शरीक थे। उन का आर.एस.एस. की विचारधारा से दूर का भी वास्ता नहीं था, बल्कि उन्होंने तो गृह मंत्री के रूप में महात्मा गांधी की हत्या के बाद आर.एस.एस. की ओर से मनाई गई खुशियां तथा लड्डू बांटने का सख्त विरोध करते हुए आर.एस.एस. तथा उसके प्रमुख गुरू गोलवलकर को 11 सितंबर 1948 को एक प्रताडऩा भरा पत्र लिखा था व संघ की ओर से लोगों को आपस में लड़ाने की साजिशों के विरुद्ध आगाह भी किया था। मोदी तथा बी.जे.पी. सिर्फ कुछ मुद्दों पर पटेल तथा नेहरू के मामूली मतभेदों के कारण ही उन का गुणगान करते हैं। जबकि सच यह है कि जो कुछ संघ परिवार आजकल कर रहा है यदि इस समय पटेल जी जीवित होते तो राजनैतिक प्रतिनिधि के रूप में इन की राष्ट्र-विरोधी कारवाईयों का सख्त विरोध करते। लेकिन, हमारी वामपंथी विचारधारा के लोगों के लिए पटेल किसी भी रूप में एकता के प्रतीक नहीं हैं, बल्कि बहुत बड़े जन-विरोधी नेता हैं। जिन-जिन रियासतों का एकीकरण हुआ, उनमें से एक रियासत हैदराबाद भी थी। उस रियासत के निजाम आसिफ अली खान तथा उसकी लाखों की संख्या में खड़ी की गई रजाकारों की गैर-कानूनी गुण्डा फौज तथा अन्य फौज के होते हुए भी कामरेड पी. सुन्दरैय्या तथा अन्य नेताओं के नेतृत्व में सन 1946 से किसानों-मजदूरों का हथियारबंद (सशस्त्र) संघर्ष सफलता सहित आगे बढ़ रहा था, जिस में गुरिल्ला विधियां भी शामिल थीं। इस संघर्ष के कारण ही गांव जागीरदारों से आजाद करवा कर उन की जमीन काबिज किसानों में बांट दी गई थी। तथा खेत-मजदूरों के वेतन में काफी ज्यादा बढ़ौत्तरी कर दी थी। ऐसे अवसर-सितम्बर 1948 में निजाम की मेजबानी करके हैदराबाद को भारत में शामिल करने के नाम पर पटेल-नेहरू ने सेना भेजकर गुरील्लों तथा काबिज किसानों, मजदूरों पर बहुत ज्यादा जुल्म ढाये। संघर्ष, जो दूसरे प्रांतों को भी अपनी लपेट में ले सकता था, उसे बुरी तरह से कुचल दिया गया। इस के सम्बंध में कामरेड पी. सुन्दरैय्या की पुस्तक, जो अंग्रेजी में तथा पी.डी.एफ. में उपलब्ध है तथा हिन्दी में प्रकाशित हो चुकी है हर एक कम्युनिस्ट को विशेष रूप से पढऩी चाहिये।
अब आते हैं इस मूर्ति के खर्च की कीमत की ओर, जो लगभग 3000 करोड़ रुपये है। इसके बारे में सोशल मीडिया में आ रही भिन्न-भिन्न रिपोर्टों के चक्कर में पडऩे की जगह केवल इतना बताना ही काफी है कि इसका खर्च भिन्न-भिन्न तेल कंपनियां, जो मोदी की मेहरबानी से पेट्रोल व डीजल की कीमतों में रोजाना बढ़ौत्तरी करके लोगों का खून निचोड़ रही हैं, गुजरात सरकार व केंद्र सरकार ने मिलकर किया है। अर्थात लोगों की गाढ़ी कमाई से यह मूर्ति बनी है। दावा किया जा रहा है कि दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बना कर भारत की दुनिया भर में वाह-वाही हो रही है। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। ‘‘टाइम्स ऑफ इंडिया’’ अखबार की 3 सितंबर 2018 की खबर के अनुसार ब्रिटेन सरकार ने भारत को साल 2018-19 के लिए 520 लाख पाउंड व 2019-20 के लिए 460 लाख पाउंड अर्थात कुल 980 लाख पाउंड आर्थिक सहायता दी है। एक पाऊंड का मूल्य 94-95 रुपए के करीब है। यह सहायता 2 वर्षों के लिये 9250 लाख रुपए के करीब बनती है। इंग्लैंड के टोरी पार्टी के एमपी डेविड डेविस का कहना है कि हमें भारत को आर्थिक सहायता देनी बंद कर देनी चाहिए। बाकी दुनिया से भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। जिस देश में लोगों की बुनियादी आवश्यकताएं भी पूरी न होती हों व आक्सीजन सिलेंडरों की कमी के कारण बच्चे अस्पतालों में सिसक-सिसक कर मर रहे हों, वहां एक मूर्ति पर इतनी धनराशि खर्च करना सरासर फिजूलखर्ची है।
इसका एक ओर पक्ष है, यह मूर्ति नर्मदा जिले के 72 गांवों को विस्थापित करके स्थापित की गई है। इन गांवों के लोगों ने 31अक्तूबर को रोष व शोक प्रकट करते हुए अपने घरों में चूल्हे नहीं जलाए तथा इस मूर्ति लोर्कापण समारोह का बहिष्कार किया। नर्मदा जिले की कुल आबादी का 81.6 प्रतिशत आदिवासी लोग हैं, वहां आज भी 56.22 प्रतिशत आबादी सार्वजनिक नलों से पानी ढोती है। इन लोगों में से केवल 17.72 प्रतिशत के पास ही बाथरूम की सुविधा है। नर्मदा जिले की मानवीय संसाधन रिपोर्ट 2016 के अनुसार 72.72 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं। यह जिला भारतीय संविधान की 5वीं अनुसूची की धारा 244(1) के अंर्तगत आता है, व 1996 के पेसा (क्कश्वस््र) कानून के अंतर्गत भी। इस कानून के अनुसार केवल गांव की ग्राम सभा ही जमीन दे सकती है, सरकार खुद नहीं ले सकती। परन्तु वहां उन लोगों से जबरी जमीन छीन कर यह मूर्ति लगाई गई है। इसलिये यह मूर्ति गरीब, शोषित आदिवासियों के जख्मों पर नमक छिडक़ने के तुल्य है।