मक्खन कोहाड़
सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष तक की औरतों को सुप्रीम कोर्ट के फैसलों तथा आदेशों के बावजूद दाखिल होने देने के विरोध ने भाजपा का औरतों के प्रति दृष्टिकोण संसार के सामने स्पष्ट कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी, आर.एस.एस. का राजनैतिक वाहन है। संघ की ओर से यह दावा किया जाता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है तथा इस का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन हकीकत इस के विपरीत है। आर.एस.एस. देश में भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से राज कर रही है। यह सामन्तवादी (स्नद्गह्वस्रड्डद्य) विचारधारा की समर्थक है तथा समाज को अन्ध-विश्वास के कुएं की ओर धकेलना चाहती है। कल्पना को इतिहास बना कर समाज को करामातों तथा अन्ध-विश्वास में धकेल कर इतिहास तथा समय के काफी आगे जा चुके पहिये को पीछे की ओर धकेलना चाहती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस का कोई संबंध नहीं है। मनु स्मृति को समाज पर पूरी तरह थोप कर भारत को ‘हिन्दु राष्ट्र’ बनाना इस का लक्ष्य है। ‘ढोर, गंवार, शुद्र, पशु, नारी, सकल ताडऩ के अधिकारी’ आर.एस.एस.-भाजपा का नीति वाक्य है।
शुद्रों, औरतों तथा गंवारों को अपने अधीन गुलामों के समान रखना, भाजपा का सामाजिक-दृष्टिकोण है। उस के अनुसार औरत तथा शुद्र पशुओं के ही समान हैं। मुसलमानों, ईसाईयों तथा अन्य अल्प संख्यकों तथा दलितों के प्रति इस का दृष्टिकोण पूरी तरह स्पष्ट है। लेकिन, अपने इस दृष्टिकोण पर पर्दा डालने के लिए वह स्त्रियों की इज्जत का दंभ बड़े पैमाने पर रचती रहती है। मुस्लिम-औरतों के प्रति ‘तीन तलाक’ के मुद्दे को इस प्रकार ही प्रचारित किया गया था कि भारतीय जनता पार्टी औरतों के प्रति बहुत चिंतित है तथा उसे वह सामन्तवादी विचारधारा से मुक्त करवाना चाहती है। इस बात का भी प्रचार किया गया था कि उस का भारत की न्याय पालिका में अटूट विश्वास है तथा उस के हर फैसले का उस के मन में बहुत सम्मान है। ऐसा भी महसूस होने लगा था कि सर्वोच्च अदालत का फैसला उसके लिए सचमुच ही ‘सर्वोच्च’ है। इसलिए ही मर्द की गुलामी से मुक्त करवाने के लिए तीन बार ‘तीन तलाक’ कह कर मर्द की ओर से विवाह का रिश्ता खत्म करने की परंपरा को ‘गैर कानूनी’ करार देने तथा सजा के योग्य अपराध घोषित करने के लिए संसद में कानून बनाया गया। लेकिल सबरीमाला मंदिर के संबंध में सर्वोच्च न्यायपालिका के फैसले को जिस प्रकार भाजपा-आरएसएस ने नकारा है इस से संघ-भाजपा के औरतों के प्रति ‘सम्मान’ का भंडाफोड़ हुआ है। आर.एस.एस. तथा भारतीय जनता पार्टी किसी भी स्थिति में औरत को पुरूष के बराबर हक देना नहीं चाहती तथा समाज को 21वीं शताब्दी की अपेक्षा हजारों वर्षों पहले वाले पत्थर युग वाले विश्वास का समर्थक बनाकर रखना चाहती है। भाजपा का ‘तीन तलाक’ संबंधी दृष्टिकोण औरत का समर्थक कम, मुस्लिम विरोधी ज्यादा था।
सबरीमाला मंदिर केरल की राजधानी थिरूवनंतपुरम से लगभग पौने तीन सौ किलोमीटर दूर पम्पा कस्बे से आगे पर्वतों में घिरा हुआ एक मंदिर है। आम तौर पर, देश के अन्य मंदिरों के समान पहाड़ी रास्तों द्वारा इस मंदिर तक पहुंचने के लिए काफी पैदल चलना पड़ता है। इस मंदिर को अयप्पा भगवान का मंदिर बताया जाता है। लोगों की आस्था के अनुसार अयप्पा ससत्त्व का अवतार है। ससत्व, शिव तथा विष्णु के स्त्री रूप मोहिनी सुमेल से पैदा हुआ समझा जाता है। अय्प्पा को ब्रह्मचारी माना गया है। इसलिए इस मंदिर में सिर्फ पुरूषों को ही जाने की आज्ञा है। लेकिन, स्त्रियां भी वे ही अन्दर जा सकतीं हैं जो दस वर्ष से कम तथा पच्चास वर्ष से ज्यादा आयु की हों, क्योंकि इस आयु में औरत को प्रकृति की ओर से दी गई अमूल्य देन तथा मनुष्य की उत्पति तथा संसार को आगे बढ़ाने के एक ही स्रोत ‘मासिक-धर्म’ में से गुजरना पड़ता है। भक्तों की आस्था तथा सोच के अनुसार मासिक-धर्म से मंदिर ‘अपवित्र’ हो जाता है।
यह सोचने वाली बात है कि क्या वास्तव में औरत की प्राकृतिक शारीरिक-प्रक्रिया मंदिरों तथा वातावरण को अपवित्र कर देती है। लाखों ही अपराध करने वाले मर्दों के प्रवेश से मंदिर पवित्र कैसे रहता है? क्या इस प्रक्रिया से प्रभु के घर अपवित्र नहीं होते? औरतों से किये जा रहे भेद, जिसके अनुसार औरत की धार्मिक स्वतंत्रता के उपर बंदिशें लगती हों, के विरुद्ध एस. महिन्द्रा नामक एक व्यक्ति की ओर से 1991 में हाईकोर्ट में रिट दायर की गई थी। हाईकोर्ट ने मंदिर में प्रबंधकों की ओर से 10 से 50 आयु वर्ग की औरतों के मंदिर में प्रवेश करने को ‘नाजायज’ ठहराया। इस के पश्चात ‘यंग इंडिया लायर्स, असोसिएशन’ नामक वकीलों की एक संस्था से संबंधित औरत वकीलों ने हाईकोर्ट के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस के संबंध में पांच सदस्यीय संवैधानिक बैंच बनाया। तत्कालीन प्रमुख न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाले इस बैंच ने 28 सितंबर, 2018 को हाईकोर्ट के फैसले को उल्टा कर, इस को न केवल औरत के धार्मिक मूल अधिकार स्वतंत्रता का भी उल्लंघन बताया। इस फैसले से सर्वोच्च न्यायालय ने औरतों द्वारा मंदिर में प्रवेश वाली पाबंदी खत्म कर दी। इस से आर.एस.एस.-भाजपा तड़प उठी। फैसला आने के तुरंत बाद सबरीमाला की प्रबंधकीय कमेटी ने इस फैसले को लागू करना स्वीकार किया, लेकिन बाद में जल्दी ही हिन्दु पुरातनपंथियों तथा भाजपा-आरएसएस काडर ने औरतों की धार्मिक-स्वतंत्रता को, भारत में रहने वाले मुसलमानों की स्वतंत्रता के समान अपना अपमान समझते हुए ‘राम मंदिर वहीं बनायेंगे’ की तरह इसे अपनी इज्जत का सवाल बना लिया तथा सबरीमाला मंदिर के भक्तों को इस फैसले का विरोध करने के लिए उकसाया। जब 10 से 50 वर्ष वाले आयु वर्ग की औरतें सर्वोच्च अदालत के फैसले को लागू करवाने के लिए मंदिर में दर्शन करने के लिए पहुंची तब मंदिर के ‘भक्तों’ ने उनको अंदर जाने से रोक दिया। यहां तक कि कुछ गुलाम मानसिकता की शिकार औरतों, जिन के पक्ष में यह फैसला था को ढाल बनाकर उनकी मदद से ही मंदिर में जाने की इच्छुक औरतों को रोका गया। अदालत के फैसले को लागू करवाने आई हुई केरल की पुलिस से झड़पें की गई। परंपरा के तौर पर महीने के पहले पांच दिनों में जब मंदिर खुलता है, उन दिनों के दौरान 10-50 वर्ष की श्रद्धालु औरतों को अंदर नहीं जाने दिया गया। पत्रकार तथा वकील औरतों को भी बख्शा नहीं गया। उल्टा, कानून लागू करने वाली केरल सरकार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जबरदस्ती लागू करने का दोष भी मढ़ा गया।
हद तो उस समय हो गई, जब मोदी सरकार तथा भाजपा के सर्वोच्च प्रतिनिधि ने भारत की सर्वोच्च अदालत को ‘सर्वोच्च’ सलाह दे डाली कि ‘सर्वोच्च अदालत को ऐसे फैसले करने चाहिएं, जो लागू किये जा सकते हों तथा लोगों की भावनाओं के विरुद्ध न हो।’ भावार्थ यह कि सर्वोच्च अदालत को अपने फैसले देश के संविधान तथा नियमों के अनुसार नहीं बल्कि सम्बंधित लोगों की आस्था को ध्यान में रखकर करने चाहिये। संविधान दूसरे दर्जे पर तथा आस्था पहले दर्जे पर। क्या संविधान की भावना को ठेस पहुंचाने वाली कोई और बात भी हो सकती है? जब तीन तलाक के फैसले पर सर्वोच्च अदालत ने अपनी मोहर लगाई थी, उस समय सर्वोच्च अदालत का फैसला कैसे ठीक था? उस समय, जब औरतों की ‘समानता’ का सवाल था। वह प्रश्न अब गायब क्यों हो गया है। यह ‘दोगली’ पहुंच है। वास्तिवकता तो यह है कि भाजपा आर.एस.एस. मनु की वर्ण व्यवस्था को लागू करते हुए औरतों को गुलाम बनाये रखना ही चाहती है। भाजपा का ‘लव जिहाद’, योगी का यू.पी. में ‘हिन्दु युवा वाहिनी ब्रिग्रेड’, दिल्ली दामिनी बलात्कार काण्ड के संबंध में यह कहना कि वह उस दोस्त के साथ सफर क्यों कर रही थी, कठुआ के आसिफा काण्ड के संबंध में अपराधियों के पक्ष में प्रदर्शन तथा आसिफा के विरोधी वकील असीम साहनी को गर्वनर की ओर से अतिरिक्त एडवोकेट जनरल बनाना, भाजपा के कई मंत्रियों का ‘मी-टू’ के प्रति दृष्टिकोण तथा ब्यान, आरएसएस का औरतों को मैंबर न बनाना आदि यही दर्शाता है।
भाजपा को यह भी खतरा है कि सर्वोच्च न्यायालय ‘अयोध्या राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद’ मुद्दे पर कहीं संवैधानिक भावना के अनुसार राम मंदिर के विरुद्ध फैसला न सुना दे। ऐसी स्थिति में यदि वह राम भक्तों की आस्था को प्राथमिकता देते हुए सर्वोच्च अदालत की ‘सर्वोच्चता’ को चुनौती देते हुए ‘राम भक्तों’ की ओर से जबरदस्ती गिराई गई मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनाने के लिए ‘आर्डिनैंस’ ले आये या संसद का दुरुपयोग करके कानून ही पास करवा ले तो इसमें भी कोई बड़ी बात नहीं। भाजपा के सामने औरत की आजादी का कोई मुद्दा नहीं है, बल्कि धार्मिक भावनाओं को भडक़ा कर वोटों को बटोरने का मुद्दा है। वह सबरीमाला मंदिर वाले मुद्दे को राम मंदिर मुद्दे के समान भडक़ा कर केरल को अयोध्या बनाना चाहती है।
2019 के चुनाव नजदीक हैं। वैसे भी यह स्पष्ट है कि मनु स्मृति को स्थापित करने सहित, आरएसएस के उद्देश्यों की पूर्ति के हित, भारत को ‘हिन्दु राष्ट्र’ ऐलान करने के लिए वह सर्वोच्च न्यायालय, सीबीआई, आरबीआई, चुनाव आयोग, तथा अन्य सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाओं के स्वतंत्र तथा लोकतांत्रिक अस्तित्व को नष्ट कर सकती है। भाजपा का यह दृष्टिकोण गैर लोकतांत्रिक तथा फाशीवादी है।
हिन्दी रूपांतरण : मोहन लाल ‘राही’