2019 के लोकसभा चुनाव भारत के जनवादी इतिहास में एक विलक्षण महत्त्व रखते हैं। इस संसदीय संघर्ष ने निर्धारित करना है कि भारत का राजनीतिक व सामाजिक भविष्य कैसा होगा? क्या हम बहु-धर्मी, बहु-भाषाई व विविधता भरपूर संस्कृति को अपने अंदर काज्ब किए देश के मौजूदा स्वरूप को कायम रखते हुए, इसके जनवादी, धर्म-निरपेक्ष व संघात्मक लक्षणों को और अधिक गहरे व प्रभावशाली बना सकेंगे? या कि भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों को नकारात्मक दिशाओं में परिवर्तित करने वाली राजनीतिक शक्तियों के सपुर्द करके इसके एक धर्म-आधारित, गैर-जनवादी, तानाशाह व मनुवादी दासता की व्यवस्था वाला देश बनने का रास्ता प्रशस्त कर देंगे?
आने वाले दिनों में इन दो राजनीतिक बिंदुओं पर केंद्रित होकर भारतीय राजनीति के घूमने की संभावनाएं दिख रही हैं। निस्संदेह, बेरोकागारी, मंहागाई, भ्रष्टाचार, कृषि संकट, सामाजिक उत्पीडऩ आदि के मुद्दे भी चुनाव प्रचार के दौरान केंद्र में रहेंगे, जिससे जन-साधारण की चेतना और अधिक तीव्र होने की संभावनाएं बनेंगी। आम लोगों से संबंधित यह प्रश्न शासक वर्गों की राजनीतिक पार्टियां शायद उतनी शिद्दत से ना उठाएं, क्योंकि पिछले समय के दौरान उनकी सरकारों द्वारा अपनाई गई नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप ही मौजूदा संताप मेहनतकश जनसमूहों को झेलना पड़ रहा है। परंतु जो राजनीतिक शक्तियां देश के मेहनतकश लोगों को मौजूदा बदतर जिंदगी से बाहर निकाल कर एक सम्मानजनक जीवन जीने के योग्य बनाना चाहती हैं, उनके लिए उपरोक्त दोनों बिंदु ही बड़ी महानता रखते हैं।
भाजपा ने संघ-परिवार के अनुरूप निर्धारित अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के किए ‘देश की सुरक्षा व राष्ट्रवाद’ को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने का निर्णय लिया है। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान विदेशों में पड़े भारतीयों के काले धन को लाकर आम लोगों के बैंक खातों में जमा करने, दो करोड़ लोगों को रोजगार देने, कृषि संकट का समाधान करने, मंहगाई पर लगाम लगाकर तेका आर्थिक विकास करने आदि जैसे सभी वायदे रद्दी की टोकरी में फेंक दिए गए हैं तथा इनकी पूर्ति के लिए नोटबंदी, जी.एस.टी. लागू करने जैसे ‘विशेष कदमों’ का बखान करना भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनका दल भूल गया लगता है। इसीलिए देश की सुरक्षा (भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा वायु सेना द्वारा बालाकोट कार्यवाही के दौरान 250 आतंकवादी मार देने जैसे झूठे दावे जैसी सुरक्षा) व राष्ट्रवाद (जिसे अंध-राष्ट्रवाद कहना ज्यादा उपयुक्त होगा) जैसे दो नए ‘जुमले’ भाजपा नेताओं द्वारा घड़ लिए गए हैं। कमाल यह है कि देश की सुरक्षा व वास्तविक राष्ट्रवाद (जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बिल्कुल भिन्न देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित हुआ था) के बारे में देश के समस्त लोग व सभी राजनीतिक दल पूर्ण रूप से एकजुट हैं। परंतु भाजपा के नेताओं द्वारा अपनी देश भक्ति को चमकाने की खातिर लगभग 70 प्रतिशत भारतीय लोगों को जोर-जबरदस्ती देश के दुश्मनों की कतार में खड़ा कर दिया गया है। राष्ट्रवाद, सांप्रदायिक जनूनी तत्वों व कुछ हथियारबंद गिरोहों द्वारा किसी अल्पसंख्यक भाईचारे के व्यक्ति, दलित व प्रगतिशील विचारधारा वाले विद्वानों को बेरहमी से मारना-पीटना तथा केवल ‘भारत माता की जय’ कहना मात्र नहीं है। बल्कि समस्त धर्मों, जातियों व संप्रदायों के लोगों को एकजुट करके उनके समक्ष खड़ी मुश्किलों का समाधान करने का प्रयत्न करना तथा हर नागरिक को अपने जिम्मे लगे कार्य को पूरी ईमानदारी, सहृदयता व योग्यता से परिपूर्ण करना ही देशभक्ति व राष्ट्रवाद है। लोगों के जीवन स्तर के ऊंचा ऊठाने व उन्हें हर पक्ष से संतुष्ट करने के अतिरिक्त केवल थोथी नारेबाजी से देशभक्ति का पाठ नहीं पढ़ाया जा सकता। कोई भी देश सिर्फ भूगोलिक नजरिये से सुरक्षा सेनाओं के सहारे ही सुरक्षित नहीं रह सकता, बल्कि करोड़ों लोगों को खुशहाल जीवन प्रदान करके देश की सुरक्षा के सिपाहसलार बनाने से ही यह कार्य संपूर्ण हो सकता है। देश की सेनाओं व अद्र्ध-सेनिक दस्तों द्वारा देश के दुश्मनों के विरुद्ध सुरक्षा हेतु की गई कार्यवाहियों को किसी व्यक्ति विशेष से जोडऩा (जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं) देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करने के समान है। देखा जाए तो यह सुरक्षा सेनाओं का राजनीतिकरण करना भी है, जो जनवाद के लिए अत्यंत खतरनाक है। अच्छा हुआ कि चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार के दौरान किसी भी राजनीतिक दल को शहीद सैनिक जवानों की फोटोज का उपयोग करना से मनाही कर दी है। परंतु भाजपा नेताओं ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सुरक्षा व धार्मिक आस्था से जुड़े मुद्दों का उपयोग करना ही है, क्योंकि बाकी सभी मुद्दों पर भाजपा के शासन की हकीकत सबके समक्ष आ चुकी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मशीनरी इस कार्य को पूरा करने के लिए पहले ही कमर कसे बैठी है। देश की विश्वस्त सरकारी संस्था ने देश की बेकारी को 2010 के बाद से सबसे ऊपरी आंकड़े पर पहुंची दर्शा कर मोदी सरकार के रोजगार बढ़ौत्तरी के समस्त दावों पर पानी फेर दिया है। आर्थिक विकास के बारे में भी सरकार की मनघंड़त रिर्पोटें लोगों की वास्तविक जीवन अवस्थाओं को नहीं बदल सकतीं तथा न ही बार-बार झूठ को सत्य बनाया जा सकता है।
आने वाले दिनों में जब समस्त राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में जुट जाएंगे, तब लोगों की तीव्र दृष्टि इस बात पर रहनी चाहिए कि कोई पक्ष देश की सुरक्षा व राष्ट्रवाद के मुद्दों पर, जिसके बारे में समस्त देशवासी एकमत हैं, विशेष रूप में सत्ताधारी पक्ष प्रचार द्वारा लोगों को गुमराह न कर सके। लोगों को अपना मत बनाते समय उनके जीवन से जुड़ीं कड़ी वास्तविकताओं को समक्ष रखना होगा व ऐसे पक्षों के हाथों देश की बागडोर सौंपने के प्रयत्न करने होंगे जो गरीबी, बेकारी, स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधाओं, मजदूरों-किसानों के सिर चढ़े कर्ज के बोझ, चहुं ओर अमर बेल की तरह फैले भ्रष्टाचार आदि जैसे प्रश्नों का समाधान करने के समर्थ हो या कम-से-कम इस दिशा में आगे बढ़ सके। धर्म आधारित देश (हिंदू राष्ट्र) स्थापित करके देश को पुन: मध्य युग की ओर धकेलना, जहां जाति-पाति, ऊंच-नीच, औरतों के प्रति तिरस्कार व अंध-विश्वास का बोलबाला था, समस्त देशवासियों के लिए गंभीर खतरों का सूचक है।
-मंगत राम पासला