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संपादकीय पी.डी.ए. ने उभारी नई राजनीतिक सँभावनायें

संपादकीय पी.डी.ए. ने उभारी नई राजनीतिक सँभावनायें

हाल ही में हुए लोक सभा चुनाव में, ‘‘पंजाब जनवादी गठबंधन’’ (पी.डी.ए) की पंजाब में सामने आई कारगुजारी ने यहाँ भविष्य में अच्छी एवं उत्साहजनक राजनैतिक संभावनाओं को जन्म दिया है। चुनावों की घोषणा के अगले दिन, 11 मार्च को तुरत-फुरत बने सात राजनैतिक दलों के इस गठबंधन का बेशक कोई भी उम्मीदवार विजयी नहीं हो पाया परंतु समस्त चुनाव अभियान में पी.डी.ए. ने राजनैतिक क्षेत्रों में खूब चर्चा बटोरी। सभी, 13 स्थानों पर उम्मीदवार खड़े करके 10.69 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाला यह गठबंधन तीसरे विकल्प के रूप में सामने आया। इस गठबंधन ने ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को भी जनाधार के मामले में पीछे छोड़ दिया। पी.डी.ए. प्रत्याशियों को 15 लाख मत प्राप्त हुए, जबकि ‘आप’ 10 लाख तक सिमट कर रह गई। पी.डी.ए. प्रत्याशियों ने लुधियाना, जालंधर, आनंदपुर साहिब, पटियाला, होशियारपुर तथा फतेहगढ़ साहिब क्षेत्रों में अच्छे सम्मानजनक मत प्राप्त किये तथा यहाँ त्रिकोणीय राजनैतिक टक्कर में अपनी उपयुक्त स्थान बनाया है। इस ‘‘गठबंधन’’ के एक भाग रूप में बसपा द्वारा लड़े गये तीन क्षेत्रों में तो इस पार्टी ने अपना प्रभावशाली जनआधार पुन: प्राप्त कर लिया है, इस तरह पी.डी.ए. ने पंजाब की कांग्रेस व अकाली-भाजपा गठजोड़ के बीच की दो-पक्षीय राजनीति के मुकाबले में यहाँ तीसरे जन-पक्षीय विकल्प के रूप में अपनी प्राथमिक पहचान बना ली है।
वास्तव में पंजाबवासी काफी लंबे समय से कांग्रेस पार्टी व अकाली-भाजपा गठजोड़ जैसे पारंपरिक राजनीतिक पक्षों से बड़ी हद तक तंग आ चुके दिखाई दे रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस दोनों ही बुनियादी तौर पर, अपने वर्ग चरित्र के अनुसार पूँजीवादी-जागीरदार वर्गों व उनके सहयोगियों, साम्राज्यवादी लुटेरों व अन्य ग्रामीण व शहरी धनवानों के हितों की रक्षा करते आ रहे हैं। दोनों ही साम्राज्यवाद निर्देशित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का डटकर समर्थन करती हैं तथा राजसत्ता पर काबिज होने के उपरांत इन जनविरोधी नीतियों को व्यवहारिक रूप देने के लिये हर प्रकार के जायज-नाजायज ढंग तरीके का उपयोग करती हैं। अकाली दल भी लंबे समय से ही उपरोक्त लुटेरे वर्गों का समर्थक रहा है तथा, इसके नेता अपने राजनीतिक व संकुचित निजी हितों के लिये सिक्ख पंथ के पत्ते का सांप्रदायिक रंग चढ़ाकर राजसत्ता हथियाने के लिये इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इसीलिये अकाली दल (बादल) का भारतीय जनता पार्टी से मौजूदा गठजोड़ भी इन दोनों पार्टियों के बीच वर्गीय दृष्टिकोण के पक्ष से सामंजस्य व दोनों पार्टियों की सांप्रदायिक विघटन पर आधारित गणनाओं पर ही खड़ा है। इस तरह पंजाब भीतरी सत्ताधारी वर्गों के इन दोनों पक्षों-कांग्रेस पार्टी व अकाली-भाजपा गठजोड़, के बीच आर्थिक नीतियों के रूप में किसी भी प्रकार का कोई अंतर नहीं है। दोनों पक्ष ही जन विरोधी नवउदारवादी नीतियों के पूर्ण रूप से समर्थक हैं तथा कारपोरेट घरानों व ग्रामीण धनवानों के हाथों में खेल रहे हैं।
इसके अतिरिक्त पूँजीपति-जागीरदार वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले इन दोनों ही राजनीतिक पक्षों के नेताओं के किरदार में भी अधिक अंतर नहीं हैं। दोनों के नेता अपने संकुचित राजनीतिक व स्वार्थी हितों को साधने के लिये तरह-तरह की अवसरवादिताओं, साजिशी चालबाजियों, भ्रष्ट व अनैतिक कुकर्मों में ही डूबे रहते हैं। आम लोगों की मुसीबतों व मांगों-उमंगों के प्रति यह नेता तो सदा ही ऊदासीन व लापरवाह बने रहते हैं। यही कारण है कि पंजाबवासियों, विशेषतय: मेहनतकशों, मजदूरों, किसानों, कर्मचारियों, बेरोजगार व अद्र्ध-बेरोजगार नौजवानों व हर रूप से उत्पीडि़त गरीब दलित परिवारों की आर्थिक व सामाजिक मुश्किलों में निरंतर बढ़ौतरी होती जा रही है। तथा इसी का परिणाम है कि देश का अन्न भंडार भरने वाले तथा बहुत से उद्योगों के लिये कच्चा माल पैदा करने वाले किसान व मजदूर कर्जदार व कंगाल हो गये हैं तथा निराश होकर हजारों की संख्या में आत्म-हत्यायें कर चुके हैं। यह दुखांत निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। इसके साथ प्रांत की तरूणाई, काफी सीमा तक, नशों ने तबाह कर दी है तथा या फिर रोजगार के लिये विदेशों की ओर भागी जा रही है। इन स्थितियों के कारण ही पंजाबवासियों का राजनीतिक रूप से जागरूक भाग अक्सर ही ऐसे विकल्प की तलाश करता है जो कि उन्हें अकाली-भाजपा गठजोड़ व कांग्रेस पार्टी दोनों के ही कुशासन से मुक्ति दिलवा सके।  
जो भी राजनीतिक शक्ति उपरोक्त दोनों पक्षों के विकल्प के रूप में उभरती है उसकी ओर लोग तुरंत ही खिंचे चले जाते है तथा उसे बड़ी आशाओं-उम्मीदों से सम्मान देते हैं। इसी समझदारी के मद्देनजर पंजाब के लोगों ने पहले पी.पी.पी. तथा 2014 में ‘आम आदमी पार्टी’ के प्रति बहुत ही ठोस व प्रभावशाली प्रतिक्रम दिया था। परंतु, स्थापति के प्रति मध्यवर्ग की निराशा में से उपजी ऐसी राजनीतिक पार्टियों की अपनी सीमायें होती हैं। मध्य वर्ग आधारित इन पार्टियों के नेता अक्सर ही बहुत तेज-तर्रार लफ्फाजी का उपयोग करते हैं तथा आम लोगों को बहुत तीखे नारे भी परोसते हैं। परंतु इन नारों की पूर्ति के लिये, जनसमूहों पर टेक रख कर उन्हें संगठित करने की जगह निजी आदर्शवाद व व्यक्तिगत पहलकदमी व हिम्मत पर ही निर्भर रहते हैं। इससे मजदूर वर्ग वाली लोगों के प्रति सुहृदयता व दृढ़ता भरपूर ठोस संघर्षों का रास्ता अपनाने वाली क्षमता विकसित नहीं होती। जबकि दूसरी ओर, मध्य वर्गीय अहम व अहंकार की कुरूचियां नेताओं की परस्पर वैचारिक व स्वार्थ पूर्ति की ओर जाती दरारों को बढ़ाने व संगठन को बिखेरने की प्रक्रियाओं को अवश्य तीखा कर देती हैं। ऐसी अवस्था का लाभ पारंपरिक पूंजीपति-जागीरदार पार्टियां भी लेती हैं तथा मध्यवर्गीय डावां-डोलता को दर्शाते हुये विरोधियों को जन-समर्थक व्यवहार से भटकाने या अपने में मिलाने में भी आसानी से सफल हो जाते हैं। पहले पी.पी.पी. तथा अब ‘आप’ की वर्तमान अवस्था ऐसी सैद्धांतिक सच्चाई को भी प्रदर्शित करती दिखाई देती हैं।
परंतु, ‘पंजाब जनवादी गठबंधन’ में ऐसी त्रुटियों-कमजोरियों पर काबू पाने की क्षमता का अनुमान सरलता से ही लगाया जा सकता हंै। इसमें मजदूर वर्ग की विचारधारा को समर्पित कम्युनिस्ट पार्टियां भी हैं तथा लंबे समय से अनुसूचित जातियों अर्थात् दलितों की दर्दनाक दशा को उभारती आ रही बहुजन समाज पार्टी भी भागीदार हैं। मेहनतकश जनसमूहों के भिन्न-भिन्न भागों के हकों-हितों के लिये संघर्षशील राजनीतिक संगठनों पर आधारित पी.डी.ए. की ऐसी संरचना केवल मध्य वर्ग पर आधारित पार्टियों की उपरोक्त सीमाओं व कमियों-कमजोरियों के प्रति सावधान रहने तथा उन पर काबू पाकर इस ‘‘गठबंधन’’ का घेरा और अधिक विशाल करने में निश्चय ही मददगार रहेगी। इस तरह, पी.डी.ए. के, भविष्य में, मजबूती से आगे बढऩे तथा प्रांतवासियों के समक्ष एक जन पक्षीय राजनीतिक व आर्थिक विकल्प पेश करने की अच्छी संभावनायें बनती दिखाई देती हैं।
यद्यपि, इस बात से सावधान रहना भी अति आवश्यक है कि यह ‘‘गठबंधन’’ अपनी सरगर्मियों को केवल चुनावी सरगर्मी तक ही सीमित ना रखे। बल्कि, इसका उपयोग ठोस जन संघर्षों को उभारने व मजबूत बनाने के लिये निरंतर रूप में किया जाये। बाहरमुखी अवस्थायें, भविष्य में, ऐसे संघर्षों की तेजी से मांग करेंगी। क्योंकि मोदी सरकार ने फिरकू-फाशीवादी स्टैंड पर चलते हुये केवल अल्पसंख्यकों, दलितों व औरतों के लिये ही नई मुसीबतें नहीं उभरनी बल्कि मंहगाई में और बढ़ौतरी करने, रोजगार को और अधिक क्षति पहुंचाने व श्रम कानूनों को अप्रसांगिक बनाने के पक्ष से भी निश्चय ही नये हमले करने हैं तथा लोगों के जनवादी व नागरिक अधिकारों को अपने तानाशाही भरे अंहकार की भेंट चढ़ा देना है। इन समस्त मुद्दों पर विशेषतया: लोगों की जीवनस्थितियों में होने वाले संभव क्षरण को रोकने के लिये विशाल जन लामबंदी पर आधारित ठोस व लड़ाकू जन संघर्ष भविष्य की सबसे अधिक उभरती मांग होंगे। इसी तरह, पंजाब की कांग्रेस सरकार से भी किसी भी प्रकार के भले की बिलकुल भी आशा नहीं है। यह सरकार भी विधान सभा चुनावों के नजदीक जाकर चाहे किसी वर्ग को छोटी-मोटी रियायत प्रदान करे, फौरी तौर पर तो हर वर्ग की मांगों-उमंगों को अनदेखा करने की पहुंच ही जारी रखेगी। इसलिये कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे किसानों, कच्चे कर्मचारियों, गरीबी व मँहगाई के दो पहियों में पिस रहे मजदूरों तथा बेरोजगार व अद्र्ध-बेरोजगार तरूणाई ने अपनी-अपनी त्रासदिक अवस्थाओं से मुक्ति प्राप्त करने के लिये संघर्षों की राह पर निश्चित में पडऩा ही है। ऐसे समस्त संघर्षों को धाराबद्ध करने व नेतृत्व प्रदान करने के लिये पी.डी.ए. को आने वाले चिंताजनक समयों के निश्चित रूप में योग्य होना पड़ेगा। ऐसे ठोस व संपूर्ण उद्यम द्वारा ही यह संभावनाओं से भरपूर जन-पक्षीय ‘गठबंधन’ प्रांत में अपना ऐतिहासिक कत्र्तव्य निभा सकता है तथा राष्ट्रीय राजनीति में भी सकारात्मक छाप छोड़ सकता है। इस दिशा में हम आर.एम.पी.आई. की ओर से संपूर्ण योगदान देने के लिये हमेशा तत्पर रहेंगे।                                        

– हरकंवल सिंह

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