पिछले महीने कई अख़बारों ने रेलवे बोर्ड के एक वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से एक रिपोर्ट दी थी। जिसमें निजी क्षेत्र को यात्री रेल का संचालन करने और किराए तय करने की अनुमति होनी चाहिए या नहीं इस विषय पर ‘‘विशेषज्ञों’’ से हुई चर्चा के बारे में बताया गया था।
वरिष्ठ अधिकारी रेलवे बोर्ड का सदस्य होता है और भारतीय रेल के संपूर्ण संचालन को रेलवे बोर्ड द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इस सदस्य ने, परिवहन अनुसंधान और प्रबंधन केंद्र द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में, इस बात की वकालत की कि दुनियाभर में रेल संचालन में आते हुए बदलावों को देखते हुए हिन्दोस्तान में भी निजी क्षेत्र को यात्री रेल के संचालन की अनुमति देने के विकल्पों पर चर्चा करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि रेलवे के वरिष्ठ अधिकारी और विशेषज्ञ चर्चा कर रहे हैं कि क्या निजी कंपनियों को किराए तय करने या टर्मिनलों के निर्माण की अनुमति दी जा सकती है।
रेलवे बोर्ड के सदस्य ने बताया कि माल ढुलाई के क्षेत्र और यात्री सेवाओं को अलग करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि चंद गाडिय़ों को छोडक़र जो मुनाफ़ा कमा रही हैं, हमारे देश में रेल सेवा को चलाना नुकसान का काम है। उन्होंने स्वीकार किया कि गैर-उपनगरीय यात्रियों में से केवल 15 प्रतिशत आरक्षित वर्गों में यात्रा करते हैं, जिनमें से भी केवल 5 प्रतिशत उच्च कक्षों से और बाकी 10 से 11 प्रतिशत यात्री स्लीपर कक्ष से यात्रा करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि बहुसंख्यक यात्री अनारक्षित वर्ग में यात्रा करते हैं। इस अधिकारी के अनुसार, माल ढुलाई के साथ-साथ यात्री किराए में भी बदलाव लाकर उन्हें और सक्रिय बनाने की ज़रूरत है (यानी कि किराए की राशि तय नहीं की जानी चाहिए लेकिन मांग में वृद्धि के साथ बढऩे की अनुमति दी जानी चाहिए)।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि रेलवे अधिकारी भी स्वीकार कर रहे हैं कि भारतीय रेल के 85 प्रतिशत यानी अधिकांश यात्री, जो कि गरीब मज़दूर और किसान हैं, जो अनारक्षित यात्रा करते हैं, फिर भी उन्हें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि रेल सेवाओं का निजीकरण किया जाए और किराया बढ़ाया जाए।
रेलवे बोर्ड के अधिकारी ने सरकार के साथ-साथ रेलवे बोर्ड के छुपे हुए एजेंडा को खुलकर सामने रखा। हालांकि आधिकारिक तौर पर वे रेलवे के निजीकरण से इनकार कर रहे हैं, लेकिन यह साफ है कि अधिकारियों की योजना रेलवे का निजीकरण करने की है। दिसंबर 2014 में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने, डीजल लोको वक्र्स, वाराणसी में घोषणा की थी कि रेलवे का निजीकरण कभी नहीं किया जाएगा। और उन्होंने भारतीय रेल के मज़दूरों के साथ-साथ लोगों से भी निवेदन किया कि उन लोगों की बातों में न आएं जो निजीकरण के मुद्दे को लेकर उनकी सरकार पर हमला कर रहे हैं। हाल ही में जुलाई 2018 तक, रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि रेलवे का निजीकरण कभी नहीं होगा!
रेलवे बोर्ड के अधिकारी वही पुराने बेकार बहानों का इस्तेमाल कर रहे हैं कि रेल सेवा नुकसान में जा रही है और इसलिए उसका निजीकरण आवश्यक है। लेकिन अगर इसके अधिकांश उपयोगकर्ता देश के गरीब लोग, यानी मज़दूर और किसान हैं, तो क्या निजीकरण करने से तथा निजी कंपनियों के हाथों में संचालन सौंप के रेल किराए में वृद्धि से 85 प्रतिशत लोग रेल सेवा का इस्तेमाल कर पाएंगे ?
यदि निजी संचालक आते हैं, तो वे केवल उन 15 प्रतिशत यात्रियों की ज़रूरत को पूरा करने पर ध्यान देंगे जो आरक्षित सीटों का उपयोग करते हैं। इन 15 प्रतिशत यात्रियों के लिए अतिरिक्त रेल गाडिय़ों को चलाने की अनुमति निजी संचालकों को देकर, मुख्य लाइन मार्ग जिसपर पहले से ही काफी ट्रैफिक है उन मार्गों पर अधिक भीड़ होगी जिससे रेलवे लाइनों पर पूरी तरह अराजकता और अव्यवस्था हो जाएगी।
सरकार और रेलवे के अधिकारी हिन्दोस्तान में रेल सेवाओं के निजीकरण को सही साबित करने के लिए दुनियाभर के रेल संचालन में आए हुए बदलावों का उदाहरण दे रहे हैं। लेकिन वे इस तथ्य को छिपाते हैं कि रेल सेवाओं का निजीकरण दुनिया के अन्य हिस्सों में बुरी तरह असफल भी रहा है। उदाहरण के लिए, ग्रेट ब्रिटेन ने 1993 में रेल सेवाओं का निजीकरण किया। जिसके चलते वहां टिकट के किराए में भारी वृद्धि हुई है जो कि यूरोप के बाकी देश जैसे फ्रांस, जर्मनी और इटली जैसे अन्य देशों की तुलना में 10 गुना अधिक है। इसके परिणामस्वरूप बढ़ती दुर्घटनाएं और सरकार पर बढ़ता बोझ भी नजऱ आया क्योंकि सरकार को निजी संचालकों के मुनाफ़े की गारंटी लेनी पड़ती है! ग्रेट ब्रिटेन की सरकार को मई 2018 में लंदन और ग्लासगो के बीच मुख्य ट्रंक मार्ग का फिर से राष्ट्रीयकरण करने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
भारतीय रेल का निजीकरण सरकार और रेल अधिकारियों की एक जन-विरोधी नीति है। यह इस तथ्य की अनदेखी करता है कि सरकार अपने अधिकांश नागरिकों को सस्ती रेल यात्रा प्रदान करने के लिए बाध्य है। केंद्र में आई सभी सरकारों ने हमेशा ही निजीकरण की नीति का पालन किया है।
सरकार और रेलवे अधिकारियों की निजीकरण की राह पर आगे बढ़ती हुई और उनकी योजनाओं को रोकने के लिए देश के रेल कर्मचारियों को अपने एकजुट संघर्ष को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है।
(सीजीपीआई.काम से धन्यवाद सहित।)