(वैसे तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आयी है। और यह सब कुछ लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के तहत हुआ है। लेकिन सचाई यह है कि लोकतंत्र के आवरण में आयी नई सत्ता बहुसंख्यकवाद और दूसरे शब्दों में कहें तो हिंदुत्व की खुली पक्षधर है। बहुलतावाद की जगह जिसने हमेशा एकात्म मानववाद को तरजीह दी है। और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर बहुसंख्यक कट्टरपन को स्थापित करने का काम किया है। और इसके जरिये हमेशा वह एक तरह की तानाशाही को प्रश्रय देती रही है। जो अल्पसंख्यकों को उनके नागरिक अधिकारों से वंचित करने के रास्ते की तरफ ले जाता है। लिहाजा लोकतंत्र के रास्ते आयी यह सत्ता खुद लोकतंत्र और उसके मूल्यों के खिलाफ खड़ी हो जाती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जीत के मौके पर दिया गया वह भाषण इसकी और पुष्टि कर देता है। जिसमें उन्होंने खुल कर धर्मनिरपेक्षता का विरोध किया है। जबकि एक मूल्य के तौर पर धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान का अभिन्न हिस्सा है। और इस देश में अगर कोई सरकार इसके बगैर चलने की कोशिश करती है तो वह किसी भी रूप में न तो लोकतांत्रिक कही जा सकती है और न ही उसको संवैधानिक कहना उचित होगा। इन्हीं सब पक्षों से जुड़ा महान विचारक डॉ. बीआर अंबेडकर का एक लेख बेहद प्रासंगिक हो जाता है। जिसे लेखक और अध्यापक रामायण राम के हवाले से यहां दिया जा रहा है- संपादक)
यह बात नहीं है कि भारत ने कभी प्रजातंत्र को जाना ही नहीं। एक समय था, जब भारत गणतंत्रों से भरा हुआ था और जहां राजसत्ताएं थीं वहां भी या तो वे निर्वाचित थीं या सीमित। वे कभी भी निरंकुश नहीं थीं। यह बात नहीं है कि भारत संसदों या संसदीय क्रियाविधि से परिचित नहीं था। बौद्ध भिक्षु संघों के अध्ययन से यह पता चलता है कि न केवल संसदें- क्योंकि संघ संसद के सिवाय कुछ नहीं थे- थीं बल्कि संघ संसदीय प्रक्रिया के उन सब नियमों को जानते और उनका पालन करते थे, जो आधुनिक युग में सर्वविदित हैं।
सदस्यों के बैठने की व्यवस्था, प्रस्ताव रखने, कोरम व्हिप, मतों की गिनती, मतपत्रों द्वारा वोटिंग, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि संबंधी नियम चलन में थे। यद्यपि संसदीय प्रक्रिया संबंधी ये नियम बुद्ध ने संघों की बैठकों पर लागू किए थे, उन्होंने इन नियमों को उनके समय में चल रही राजनीतिक सभाओं से प्राप्त किया होगा। भारत ने यह प्रजातांत्रिक प्रणाली खो दी। क्या वह दूसरी बार उसे खोएगा? मैं नहीं जानता, परंतु भारत जैसे देश में यह बहुत संभव है- जहां लंबे समय से उसका उपयोग न किए जाने को उसे एक बिलकुल नई चीज समझा जा सकता है- कि तानाशाही प्रजातंत्र का स्थान ले ले। इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिलकुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो।
चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है। प्रजातंत्र को केवल बाह्य स्वरूप में ही नहीं बल्कि वास्तव में बनाए रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए? मेरी समझ से, हमें पहला काम यह करना चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक संवैधानिक उपायों का ही सहारा लेना चाहिए।…दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखना, जो उन्होंने उन लोगों को दी है, जिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी है, अर्थात ‘‘अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।’’
उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं है, जिन्होंने जीवनपर्यंत देश की सेवा की हो। परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, ‘‘कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।’’ यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है। – जनचौक से साभार