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नफरतों के इस दौर में भगत सिंह और उनके साथी

नफरतों के इस दौर में भगत सिंह और उनके साथी

अजय कुमार
आज यानि 23 मार्च हिंदुस्तान के उस पुरखे की बरसी है जो आज के उस नौजवान के लिए प्रेरणास्रोत और विचार है जो युवा हिंदुस्तान में बराबरी और समता का सपना लिए आज भी विभिन्न तरीकों से संघर्षरत हैं। यह सपना देखते हुये कि भगत सिंह और उनके साथी जो सपना देख रहे थे वह सपना एक दिन पूरा होगा।
भगत सिंह महज एक नाम नहीं है, बल्कि एक आंदोलन है। समाजवादी व्यवस्था कायम करने के आंदोलन की शुरुआत भी उन्हीं दिनों हुई थी जब भगत सिंह और उनके साथी इस देश से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें उखाड़ फेंकने की मुहिम में शामिल हुए थे। यह 1920 का दशक था। प्रथम महायुद्ध 1914-18 खत्म हो चुका था, रूस में समाजवादी क्रांति (1917) आ चुकी थी, जलियांवाला बाग में अंग्रेजों के हाथों हिंदुस्तानियों के नरसंहार ने पूरे देश में गुस्से की लहर पैदा कर दी थी, गांधी जी का असहयोग आंदोलन चरम पर था और फिर उसे वापस ले लिया गया था। माहौल में गुस्सा और गुस्से से भरी निराशा थी। राजनीतिक रूप से भगत सिंह और उनके साथियों का उभार इसी दौर में हुआ था। काकोरी ट्रेन डकैती केस में 1925 में हुई गिरफ्तारियां, चार क्रांतिकारियों को फांसी और बाकी अभियुक्तों को लंबी सजाओं से सशस्त्र क्रांति का सपना बिखर गया था।
इस दौर में भगत सिंह अपने गहन अध्ययन की बदौलत इस नतीजे पर पहुंचे कि आजादी की मुहिम में मजदूर, किसानों और नौजवानों की पहल और उनकी हिरावल भूमिका के बिना मुल्क की मुकम्मल आजादी की बात सोची भी नहीं जा सकती। अगर इन वर्गों का नेतृत्व न हुआ तो जो भी आजादी मिलेगी वह किसी समझौते के तहत मिलेगी और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था में कोई बुनियादी तब्दीली नहीं आएगी। भगत सिंह को शायद अहसास था कि वह बहुत छोटी सी जिंदगी जीने वाले हैं और वह इस छोटे से वक्त का अधिकतम इस्तेमाल करने के लिए जैसे उतावले थे। उन्होंने सांडर्स की हत्या जरूर की मगर वह उस समय तक इस तरह की हत्याओं के खिलाफ हो चुके थे।
अब वो जल्द से जल्द अपनी इस नई समझ को जनता तक पहुंचाने के लिए व्यग्र हो उठे। इसलिए उन्होंने सोच समझकर और जानबूझकर सेंट्रल असेंबली में बम का धमाका किया और खुद को गिरफ्तार हो जाने दिया। इसके बाद अपनी समझ और विचारों को जनता तक पहुंचाने के लिए अदालत का इस्तेमाल किया। याद रखना चाहिए कि उन दिनों समाजवादी विचारधारा के प्रचार प्रसार पर कई तरह की पाबंदियां थीं। भगत सिंह जानते थे कि उनकी गिरफ्तारी का मतलब फांसी होगा। जब 1928 में उन्होंने अपने आप को गिरफ्तार करवाया, उनकी उम्र 21 साल थी और जब फांसी हुई तो महज साढ़े तेईस साल के थे।
भगत सिंह और उनके साथियों के लेखों, पत्रों और दस्तावेजों का अध्ययन करने पर यह साफ जाहिर होता है कि उनकी विचारधारा उस समय के भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की विकसित और मजबूत विचारधारा थी। नौजवान भारत सभा और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना और जेल में रहते हुये भगत सिंह और साथियों ने भारतीय समाज का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया और आजाद भारत का जो नक्शा बनाया था वह उस समय के सबसे प्रगतिशील, वैज्ञानिक और जनपक्षधर विचारों पर आधारित था।
भगत सिंह और उनके साथियों की दोस्ती
भगत सिंह के साथ ही उनके साथी अशफाक उल्ला खां और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल अपने देश के सच्चे आशिक थे और इसी देश के इश्क ने उन्हें दोस्ती करने पर मजबूर कर दिया। इन दोनों क्रांतिकारी शहीदों से एक ही बात सीखी जा सकती है कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं। मनुष्यता की डगर पर चलने वाले और बंधुत्व की इबादत करने वाले दो इंसान आपस में किस तरह से जिंदा रह सकते हैं और किस भांति मर सकते हैं। इनकी दोस्ती के बारे में सुधीर विधार्थी कुछ यूं फरमाते हैं ‘‘इतिहास में दर्ज उस दोस्ती को किस लफ्क़ा से पुकारू ? वह इश्क था, मोहब्बत थी या फिर क्रान्ति के हमराहियों के सफरनामें की एक ऐसी अनोखी दास्तान जिससे आने वाली पीढिय़ां प्रतिपल रोमांचित होती रहेंगी।’’
कवि शलभ श्रीराम नें बिस्मिल और अशफाक की दोस्ती पर कुछ इस तरह से कहा है-
हिंदोस्तान की शान हैं अशफाक व बिस्मिल
दो जिस्म एक जान हैं अशफाक व बिस्मिल।
अशफाक व बिस्मिल हैं मुसलमान में हिन्दू
हिन्दू में मुसलमान हैं अशफाक व बिस्मिल॥
लेकिन इस दोस्ती को सिर्फ हिन्दू, मुसलमान की एकजुटता कहना उन क्रांतिकारी विचारों की अनदेखी करना होगा जिसके लिए बिस्मिल और अशफाक नें अपना बलिदान दे दिया। यह उस क्रान्तिकारी सिद्धांतों और विचारों, लक्ष्यों का एक ऐसा मिला-जुला ऐतिहासिक सफरनामा है। जिसने अपने समय में इतिहास के पहिये को तेजी से आगे ले जाने में बड़ी भूमिका अदा की। अशफाक ने अपने लेखन में किसान और मजदूरों की शक्ति को पहचानते हुए उस राज को कायम करने की ओर लक्षित किया है, जो जमीन पर समाजवाद की स्थापना सुनिश्चित कर सके। इसी तरह पंडित रामप्रसाद बिस्मिल भी क्रान्तिकारी संग्राम की सफलता के लिए जनचेतना को विकसित करने की जरूरत पर जोर देते हुए दलितों के हक में काम करने की दिली ख्वाहिश जाहिर करते हैं। इस प्रकार से अशफाक व बिस्मिल की क्रान्तिकारी दोस्ती और उनका क्रान्तिकारी चिंतन आगे चलकर चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के लिए एक आधार बनता है।
आज की आजादी और भगत सिंह
15 अगस्त 1947 को जिस तरह से समझौते के आधार पर देश को आजादी मिली थी उसके बाद से देखने में तो यही आ रहा है आज की सरकारें और देश का नेतृत्व अंग्रेजों की तरह हर प्रकार के अत्याचारों का भागीदार है। आज का नेतृत्व बिल्कुल बड़ी ही वफादारी के साथ यह सब कर रहा है ।
दरअसल भारतीय जनमानस में भगत सिंह को एक बहादुर और बेखौफ क्रांतिकारी के तौर पर पेश किया गया है। भगत सिंह का दूसरा पहलू जो हिंदुस्तान के नौजवानों के सामने उभरता है, वह है भगत सिंह का एक बौद्धिक क्रांतिकारी  और एक चिंतक के तौर पर सामने आना। इस तरह से आज हिंदुस्तान के उस युवा पुरखे की बरसी पर आज के युवा और नौजवान भगत सिंह को क्यों याद करें? उनसे दोस्ती कैसे करें?
भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव के 88 वें बलिदान दिवस पर उन्हें याद करते हुये हमारे मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जिस सपने को लेकर हमारे क्रांतिकारी पुरखों ने हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया था, उस सपने का क्या हुआ। ब्रितानिया हुकूमत ने भगत सिंह और उनके साथियों के शरीर को ही फांसी दी थी, उनके विचारों को वे खत्म नहीं कर सकते थे, और कर भी नहीं पाए। भगत सिंह ने कहा था-
हवा में रहेगी मेरे खयाल की बिजली,
ये मुश्ते-खाक है फानी रहे, रहे न रहे।  
आजादी के बाद देशी शासक भी भगत सिंह के विचारों से उतना ही भयभीत हैं जितना कि अंग्रेज। उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों को जनता से दूर रखने के लिए भरपूर कोशिश कर रखी है। लेकिन देश की जनता अपने गौरवशाली पुरखों को कैसे भूल सकती है। आज भी जन-जन के मन-मस्तिष्क में शहीदों की यादें ताजा हो ही जाया करती हैं। इस तरह से जो काम ब्रितानिया हुकूमत और उनके देशी पि_ू शासक नहीं कर पाये। वह काम आज समाज में नफरत और घृणा का काम कर रही दकियानूसी, जनविरोधी ताकतें कर रही हैं। जाति और धर्म के तंग दायरे से ऊपर उठकर देश और समाज के लिए जिंदगी का सब कुछ कुर्बान करने वाले भगत सिंह को आज उन्ही सीमाओं में कैद करने की साजिश की जा रही है। कोई उन्हें पगड़ी पहना कर सिख पहचान देने का प्रयास कर रहा है। कोई उन्हें जाट जाति का बताते हुये मार्शल कौम का प्रतिनिधि बनाने का, तो कोई उन्हें आर्य समाजी बताने का प्रयास कर रहा है। तो कोई उन्हें हिन्दू।
इस प्रकार से भगत सिंह को उनके क्रांतिकारी विचारों पर पर्दा डालते हुये उन्हें एक ऐसे बलिदानी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। जैसे शमा पर जलने वाला कोई दीवाना-परवाना जिसे यह बोध न हो कि वह क्यों अपने प्राण दे रहा है। जिसमें सिर्फ मरने का जज्बा और साहस हो। इस तरह के विचार सामाजिक जड़ता को बनाए रखने वाले, प्रगति और परिवर्तन के विरोधियों की साजिश और नफरत की राजनीति का हिस्सा हैं। यह भगत सिंह के विचारों को दूषित करते हुए लोगों को भटकाने और उनके क्रांतिकारी विचारों को दफ्न करने का एक घिनौना प्रयास है।
भारतीय संसद में जब भगत सिंह की प्रतिमा लगाई गयी तो उसमें उनको पगड़ी पहने हुए दिखाया गया है। इस तरह से भारतीय शासक वर्ग ने मेहनतकश जनता के जीवन में न्याय, समता और खुशहाली लाने का भगत सिंह का सपना त्याग कर मु_ीभर लोगों के लिए विकास का रास्ता अपना लिया है। इस तरह से भगत सिंह की प्रतिमा लगाना मात्र ढोंग और पाखंड है और यह भगत सिंह का अपमान भी। यह शासकों और शोषकों का आजमाया हुआ तरीका होता है कि जिन महापुरुषों के विचारों को नकारना संभव न हो, उन्हें देवता बना दिया जाए। भारत में कबीर जो मठों, आडंबरों के विरोधी थे, उनके नाम पर पंथ चलाकर उन्हें भी मठों में कैद कर दिया गया। महावीर और गौतम बुद्ध जो मूर्ति पूजा के विरोधी थे, उनकी मूर्ति बनाकर उनकी पूजा होने लगी। बिल्कुल इसी तरह से भगत सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही कुचक्र रचा जा रहा है।
इस भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार के जमाने में समाजवाद की बात करना उन बहुतों को हास्यास्पद लग सकता है जिनकी आंखें मेक इन इंडिया, शाइनिंग इंडिया और अब विकास की चकाचौंध से चुंधिया गई है। वो बड़ी आसानी से भूल जाते हैं कि भारत में भूमंडलीकरण व मुक्त व्यापार के पहले दौर 1991 से 2019 के बीच के 28 सालों में लाखों किसान आत्महत्या के शिकार हो गए। वो भूल जाते हैं कि पृथ्वी के संसाधन असीमित नहीं है। इनका उपभोग अनियंत्रित और निरंकुश नहीं हो सकता। दुनिया को अभी तक समाजवाद को छोडक़र, किसी ऐसी व्यवस्था की जानकारी नहीं है, जिसके अंतर्गत मुनाफे की खातिर किए जाने वाले इस अंधाधुंध उपभोग पर अंकुश लग सके। इसलिए भगत सिंह और समाजवाद की प्रासंगिकता आज पहले से भी कहीं ज्यादा है।
पिछले कुछ सालों में भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल कुछ ऐसे तत्व करने की कोशिश कर रहे हैं जिनका उनके सिद्धांतों और आदर्शों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। भगत सिंह समाजवादी नहीं थे यह कहने की कोशिश भी की जा रही है। बहुत से इतिहासकारों और विद्वानों का मत है कि बीती सदी में दो ही ऐसे क्रांतिकारी थे जो अपने आदर्शों के लिए अपनी जान हथेली पर लिए रहते थे। उन्हें मौत का खौफ छू तक नहीं गया था। और दोनों ने ही बहुत कम उम्र में मौत को गले लगा लिया। ये थे भगत सिंह और चे ग्वेरा। बहुत से लोगों का यह मानना भी है कि भगत सिंह और चे ग्वेरा इस 21वीं सदी में पिछली सदी के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रासंगिक है। इसी के साथ हम एक अन्य शहीद, अवतार सिंह पाश को भी याद कर रहे हैं। पाश के रास्ते से बहुत से लोग असहमत हो सकते हैं, पर उसकी ईमानदारी और उसकी अंगारे जैसी दहकती कविता से किसी को कोई उज्र नहीं हो सकता। तेईस मार्च को ही खालिस्तानियों ने उनकी हत्या कर दी थी। शहीदों की इस फेहरिस्त में पाश का भी स्थान है और रहेगा।
इस तरह से आने वाली पीढ़ी के इतिहास लेखक जब अतीत का वृतांत लिखने बैठेंगे तो क्या वे यह सवाल नहीं उठाएंगे की कैसे थे वे लोग जिन्होंने हिंदुस्तान के उन गौरवशाली शहीदों को वह स्थान नहीं दिया जिनके विचारों से आज की नौजवान पीढ़ी कुछ सीखती। आज देश का नेतृत्व जिनके हाथों में है यदि उनके दिलों में शहीदों के लिए थोड़ा सा भी प्रेम बाकी है तो उन्हें चाहिए की शहीदों के विचार, संस्मरण और उनके जीवन संघर्ष को लिखने के लिए लेखकों, साहित्यकारों को कहें और उन्हें कालेजों, विश्वविद्यालयों में जगह मिल सके जिससे भविष्य के लिए आज के नौजवानों में देश प्रेम एकता और मेलमिलाप के विचार को प्रसार मिल सके।
आज भगत सिंह का और उनके साथियों का हमारे लिए सबसे बड़ा महत्व यह है कि वे क्रांतिकारी और विचारक थे। हमारे देश समाज और मेहनती गरीब जनता के लिए उन क्रांतिकारियों के विचार आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। लेकिन अफसोस की बात ये है कि उनके विचारों को आज दूषित किया जा रहा है।
इस तरह से भगत सिंह को याद करने का सबसे सही तरीका यही हो सकता है कि आज उनके विचारों को जन-सामान्य में पहुंचाया जाये। उनके विचारों को व्यवहार के धरातल पर उतारने के लिए एकजुट होना भी आज के समय की मांग है। शहीदों के सपने को देश की बहुसंख्य जनता का सपना बनाना और उसे साकार करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(लेखक, राष्ट्रपति निवास, शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में अध्येता हैं।)

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