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जन-समर्थक राजनीतिक ढांचा प्रदान करने की जिम्मेवारी वाम व जनवादी पार्टियों पर

जन-समर्थक राजनीतिक ढांचा प्रदान करने की जिम्मेवारी वाम व जनवादी पार्टियों पर

मंगत राम पासला
हमारी जनवादी प्रणाली में ‘दल-बदलियांÓ एक पुरानी परंपरा है। किसी समय में हरियाणा इस मामले में अग्रणी प्रांत था। पर अब यह घटनाक्रम आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल समेत लगभग सारे ही प्रांतों में पैर जमा चुका है। 1957 में केरल की प्रथम कम्युनिस्ट सरकार सिर्फ एक मत के बहुमत पर टिकी रही थी, जब तक कि कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के खरीद-फरोख्त करने के समस्त छडय़ंत्रों की असफलता के बाद कानून-व्यवस्था की बिगड़ी स्थिति का ढौंग रचके इसे गैर-सांवैधानिक ढंग से तोड़ नहीं दिया गया था। इस सरकार के नेता कामरेड ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद थे। दलबदली के इस अवसरवादी राजनीतिक खेल में कांग्रेस,भाजपा, समाजवादी पार्टी, बी.एस.पी., एन.सी.पी., तेलगू देशम, टी.एम.सी., आप समेत सारे ही दल शामिल हैं। यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी इस अनैतिक कार्यशैली से अछूती नहीं रहीं हैं। दल बदलियां जनवादी ढांचे के लिये अत्यंत हानीकारक होने के साथ साथ वर्तमान राजनीति के पतन के शिखर को भी रूपमान करती हैं।
यदि कोई विधानसभा या संसद के लिये चुना गया प्रतिनिधि, वैचारिक स्तर पर अपनी पार्टी को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होना चाहता है, तो उसे पहले अपने पद का त्याग करना चाहिये तथा अन्य दल में शामिल होकर चुनाव लडऩे की जगह उस दल के साधारण कार्यकर्ता के रूप में कार्य करना चाहिये। जिस दल में ऐसे तत्व शामिल होते हैं, उसे भी इन लोगों को चुनाव लडऩे के लिये टिकट नहीं देने चाहियें। परंतु आज के शोषक वर्गों का प्रतिनिधित्व करते राजनीतिक नेता, जिन्हें जन भाषा में ‘अवसरवादीÓ कहते हैं, तो जन सेवा के लिये नहीं बल्कि किसी भी ढंग से धनवान व सामाजिक पद प्राप्त करने के लिये राजनीति में प्रवेश करते हैं। शायद इन्हींं सज्जनों के चरित्र के अनुरूप ही राजनीति को ”बदनाम लोगों की सुरक्षित पनाहगाहÓÓ समझा जाने लगा है। चाहे छोटी मात्रा में ही सही, वामपंथी दलों के भीतर इस रोग का पनपना वाम दल बदलुओं के भीतर जन पक्षीय सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्धता की कमी का सूचक है।
भाजपा के दूसरी बार सत्ताधारी बनने के बाद से विरोधी दलों के नेताओं में सत्तासीन भाजपा में शामिल होने की होड़ लगी हुई है। प्रत्यक्ष है कि इन दलों का आर्थिक नीतियों व वैचारिक रूप में भाजपा से कोई स्पष्ट व विश्वसनीय अंतर नहीं है। तथाकथित धर्म निरपेक्ष पार्टियों के नेताओं को सांप्रदायिक विचारधारा के प्रति समर्पित भाजपा में शमूलियत कोई अनहोनी या शर्मनाक कार्यवाही नहीं लगती, बल्कि ऐसा अवसरवादी व्यवहार एक सुनहरी अवसर के सुयोग्य उपयोग जैसा है, जिस द्वारा वे सत्ता का सुख भोग सकते हैं। मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के संबंध में संविधान की धारा 370 व धारा 35ए को पूर्ण रूप में हटा कर उस प्रांत को दो भागों में बांटने वाले कानून के प्रति कांग्रेस जैसी पुरानी व तजुर्बेकार पार्टी विभाजित व दिशाहीन बनी हुई है। इसी तरह बसपा, बीजू जनता दल व अकाली दल का इस मुद्दे पर मोदी सरकार का सहयोग करना भी दर्शाता है कि इन दलों के मेहनतकशों के हितों की रक्षा, जनवाद, संघवाद व धर्म निरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता का ढौंग सिर्फ लोगों की आखों में धूल झोंकने के तुल्य है। बादल अकाली दल का यह व्यवहार तो अकाली दल के अपने उस इतिहास को कलंकित करने के समान है, जब अकाली नेता राज्यों को अधिक अधिकार देने, संघीय ढांचा मजबूत करने तथा धार्मिक अल्प संख्यकों की रक्षा करने का दम भरते हुये विशाल आंदोलन आरंभ करते थे व गौखमयी बलिदान देते थे। अकाली दल के मुख्य नेताओं का उस भाजपा से अटूट रिश्ता घोषित करना, जो देश में पूर्ण रूप से एक धर्म आधारित राज्य (हिंदू राष्ट्र) स्थापित करना चाहती है व देश के जनवादी, धर्म निरपेक्ष व संघीय ढांचे पर हमला बोल रही है, इसके अवसरवादी, जन विरोधी व पतनशील चरित्र को ही दर्शाता है।
भाजपा की ओर दलबदलियों का रूझान पूंजीपति-जागीरदार वर्गों की राजनीतिक पार्टियों के नेताओं का पिछले 72 वर्षों के दौरान भ्रष्टाचारी कार्यवाहियों व कानूनी, गैर-कानूनी ढंगों से की गई अथाह लूट-खसूट द्वारा इक_ी की गई धन दौलत का पर्दाफाश होने के भय के कारण भी है। भाजपा सरकार की भिन्न भिन्न एजेंसियां जैसे कि आमदनी कर, इंर्फोसमैंट डायरेक्टोरेट, सी.बी.आई. आदि के पास सारी ही विरोधी पार्टियों के नेताओं  की समस्त संपत्तियों व अन्य गैर कानूनी व्यापारिक गतिविधियों के ब्यौरे हैं। भाजपा, विरोधी पार्टियों के नेताओं को उनके गलत कारनामों का डर देकर जेल भेजने या भाजपा का दामन थामने के लिये मजबूर कर रही है। इस विधि को ही ब्लैक मेलिंग कहा जाता है, जिसमें संघ परिवार के लोग बहुत माहिर हैं। हालांकि सत्ताधारी पार्टी, भाजपा के अधिकतर नेता खुद भी भ्रष्टाचार करने में किसी से पीछे नहीं है, परंतु सत्ता सभी कुकर्मों को छुपाने में समरथ है। इसलिये आने वाले दिनों में चाहे देश के आम जन मोदी सरकार के गैर जनवादी सांप्रदायिक व्यवहार व जनविरोधी नवउदारवादी नीतियों से नाराज होकर उससे छुटकारा प्राप्त करना चाहेंगे। परंतु क्या इन पारंपरिक विरोधी दलों के भ्रष्ट व अवसरवादी नेता पीडि़त जनसमूहों का नेतृत्व करने के योग्य बन सकेंगे, इस बारे में भारी संदेह है? शायद आने वाला समय उन लोगों की तलाश में है, जो राजनीति को वास्तविक रूप में जनसेवा का माध्यम समझते हों। भाजपा के हाथ में सत्ता आना देश के धर्म-निरपेक्ष व जनवादी ढांचे के लिये बड़ी चुनौती है। सत्ताधारी पक्षों का प्रयत्न होगा कि विरोधी पक्ष की जुबानबंदी करके व देशद्रोह जैसे झूठे दोषों में जेल में डालकर देश के आम लोगों को गुमराहकुन प्रचार द्वारा भाजपा की सांप्रदायिक व संकीर्ण विचारधारा के अनुयायी बनाया जाये। आर.एस.एस. के निर्देशों के अनुसार बनी मोदी सरकार देश की राजनीति को विरोध विहीन बनाना चाहती है, जिसका असली नाम ‘फाशीवादÓ है। इसके साथ ही हिंदुत्व के एजंडे को संपूर्ण करने हेतु धार्मिक अल्प संख्यकों, दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों व प्रगतिशील लोगों के विरुद्ध सरकारी तंत्र द्वारा हमला बोलने के लिये पूरी तैयारियां शुरू की जा रही हैं। दूसरी ओर सत्ताधारी पक्ष नवउदारवादी नीतियां लागू करके धन कुबेरों व कारपोरेट घरानों को जनसमूहों के अकथनीय शोषण द्वारा अकूत मुनाफे कमाने की पूरी छूट दे रहा है। लोगों की दुख तकलीफें दूर करने, बेकारी पर काबू पाने तथा शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा आदि जैसे मुद्दे आने वाले दिनों में सरकारी एजंडे से पूर्ण रूप में गायब मिलेंगे।
निकट भविष्य में मोदी सरकार के प्रति लोगों का मोह भंग होना व बेचैनी का बढऩा लाजमी है। परंतु उस बेचैनी को जनवादी दिशा में लामबंद करके एक वैकल्पिक राजनीतिक ढांचा प्रदान करना पारंपरिक राजनीतिक पार्टियों के वश की बात नहीं है। यह जिम्मा देश की वामपंथी व जनवादी पार्टियों का है कि वे पारदर्शी व जन हितों के प्रति प्रतिबद्ध राजनीति द्वारा जन रोष को लामबंद करें व आगे बढ़ें। वामपंथी आंदोलन की मजबूती के साथ अन्य दलों का जन आधार व बहुत से नेता भी जन आंदोलनों के उभर रहे उफान का भाग बन सकते हैं। लूट-खसूट आधारित राजनीति संकीर्ण  हितों की पूर्ति व अवसरवादी व्यवहारों द्वारा मोदी सरकार का मुकाबला नहीं किया जा सकता। इस कार्य के लिये निस्वार्थ व बलिदानी राजनीति को अपनाया जाना जरूरी है। फिर भी, जितना संभव हो सके, सांप्रदायिकता-फाशीवाद को परास्त करने के लिये स्थायी व अस्थायी सहयोगी ढूंढने की आवश्यकता है। परंतु ऐसा करते हुये अपने उद्देश्य से नहीं भटकना चाहिए।
अनुवादक : रवि कंवर

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