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गंभीर कृषि संकट तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य की धोखाधड़ी

गंभीर कृषि संकट तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य की धोखाधड़ी

रघबीर सिंह

देश के सत्ताधारी पूंजीपति जागीरदार वर्गों और उनकी सभी राजनीतिक पार्टियों के नेतृत्व में बनने वाली केंद्रीय और राज्य सरकारों की किसान विरोधी नीतियों ने कृषि संकट को और अधिक गंभीर बना दिया है। पिछले बीस सालों के दौरान लगभग 4 लाख किसानों, जिनमें बड़ी संख्या सीमांत और छोटे किसानों की है, द्वारा आत्महत्याएँ इस संकट की चरम सीमा को प्रकट करती हैं। पूंजीवादी पार्टियों की सभी सरकारें पहले लंबे समय तक इन मौतें को किसानी कजऱ्े के कारण हुई मौतें मानने से इन्कार करती रही हैं। परन्तु ठोस हकीकतों और किसान संघर्षों के दबाव में आखिर उनको इस गंभीर दृश्य को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस संकट के कारणों और इनके समाधान के ढंगों का गहराई से अध्ययन करने के लिए यू. पी. ए.-1 की श्री मनमोहन सिंह की सरकार ने प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डा. एम. एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व से केंद्रीय किसान आयोग कायम किया था। इस आयोग ने 2006 में कुछ बुनियादी सिफारशें की थीं। जिनमें फसल के कुल खर्च अर्थात सी-2 फार्मूले के आधार पर किसानों द्वारा किए खर्च  का 50 प्रतिशत अधिक मूल्य दिया जाना सुनिश्चित किया जाना था। परन्तु यह सिफ़ारिश कांग्रेस सरकार ने अपने रहते आठ सालों (2006-2014) में लागू करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। 2014 के संसदीय चुनावों के समय मोदी साहब के नेतृत्व में बी. जे. पी. ने स्वामीनाथन कमीशन की सिफारशें लागू करने का ज़ोरदार वायदा किया था। परन्तु चुनाव जीतने के बाद बी. जे. पी. सरकार का यह वायदा भी विदेश में से काला धन वापस लाकर हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए जमा करने के नारे की तरह एक चुनावी जुमला ही साबित हुआ। किसानी के हितों की रक्षा बी. जे. पी. के खेमे में शामिल ही नहीं थी। किसान इस वायदा खिलाफी के विरुद्ध कोर्ट में गए तो केंद्र सरकार की तरफ से दिए हल्फनामे में साफ़-साफ़ कह दिया गया कि ऐसा किया जाना बिल्कुल भी संभव नहीं है- किसानों को कुल किए गए खर्च का ड्योढा भाव देना। बी. जे. पी. इसे आपने ऐजंडे में लाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी।
किसान संघर्ष सामने सरकार झुकी
सरकार की इस बेवफ़ाई और निरंतर बढ़ रहे खेती संकट के विरुद्ध किसान संघर्ष और अधिक तीव्र हुए। साल 2016 का जून महीना तीव्र संघर्षों का महीना बन गया इस समय के दौरान ही मध्य प्रदेश में किसानों की जनसभा पर गोली चला कर पुलिस ने 5 किसान शहीद कर दिए। सरकार समझती थी कि किसान इस दमन से डर जाएंगे। परन्तु हुआ इसके बिल्कुल विपरीत। राजस्थान की राजधानी, जयपुर में 2 लाख से अधिक किसानों का संयुक्त धरना कुछ बुनियादी माँगों की प्राप्ति के साथ ही वापिस हुआ।
इसके बाद किसान संघर्ष का घेरा विशाल होता गया और इसकी लड़ाकू सामथ्र्य निरंतर बढ़ती गई। इस पृष्ठभूमि में अखिल भारतीय किसान संघर्ष तालमेल समिति का गठन हुआ। मार्च 2017 में नासिक से चला किसान मार्च 180 किलोमीटर का सफऱ तय करके मुम्बई पहुँचा तो सरकार को किसानों के गुस्से और उनके संघर्ष की शक्ति को मान्यता देनी पड़ी। संघर्ष के इस दबाव के सामने मोदी सरकार को किसानों को खर्च से ड्योढा भाव देने को सैद्धांतिक रूप में स्वीकार  करना पड़ा। उसने 2017-18 की खरीफ फसल के समय ही ड्यूढे भाव दिए जाने का धोखे भरा वक्तव्य दे दिया था, जो वास्तविकता से कोसों दूर था। इसी धोखे भरी नीति को आगे बढ़ाते हुए उसने 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने का नाटक रचा। धान के भाव में 200 रुपए प्रति क्विंटल वृद्धि का ऐलान करके जगह-जगह पर रैलियाँ करके प्रधानमंत्री की तरफ से किसानों को गुमराह करने का प्रयत्न किया गया।
न्यूनतम समर्थन मूल्य का धोखा बेनकाब
मोदी सरकार के इस झूठे दंभ और किसानों के साथ किये जा रहे धोखे को बेनकाब करने के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष तालमेल समिति ने संघर्ष का मैदान संभाला। 20 जुलाई 2017, जिस दिन उस की ओर से तैयार किये गए दो बिल-कजऱ् मुक्ति का कानूनी अधिकार और निश्चित लाभपरक कीमतें प्राप्त करने का अधिकार बिल, संसद में पेश किये जाने थे, को मंडी हाऊस से संसद भवन की ओर किये गए मार्च में हज़ारों किसानों ने बुलंद आवाज़ में नारा लगाया ”मोदी का न्यूनतम समर्थन मूल्य धोखा है-असली न्यूनतम समर्थन मूल्य का मौका है।ÓÓ इस संघर्ष समिति की ओर से तथ्यों के आधार पर साबित किया गया कि मोदी सरकार ने किसानों के लागत खर्च सी-2 की जगह ए-2+ऐफऐल फार्मूले के आधार पर गिने हैं। इस धोखे भरे तरीके से किसानों के साथ ठगी की गई है। कुछ मुख्य फसलों बारे नीचे दिए गए आंकड़े इस धोखे को साबित करते हैं (देखो सारणी नं. 1)।
इसी तरह यह किसानों के साथ बहुत बड़ा धोखा था जो बुरी तरह बेनकाब कर दिया गया।
कृषि लागत व कीमत आयोग (ष्ट्रष्टक्क) की तरफ से लागत कीमतों की गणना करते समय गैर-हकीकी और किसान विरोधी नीति अपनाने की वास्तविकता इस से भी स्पष्ट होती है कि साल 2017-18 व 2018-19 की बीच उसने गेहूँ और धान की लागत कीमतों में सिफऱ् 49 रुपए प्रति क्विंटल की ही बढ़ौत्तरी की है। कमीशन के अनुसार धान की लागत कीमत जो 2017-18 में 1117 रुपए थी 2018-19 में बढ़ाकर 1166 रुपए और गेहूँ की लागत कीमत 817 रुपए प्रति क्विंटल से बढाकर 866 रुपए क्विंटल की गई। परन्तु आयोग की समझदारी हकीकतों के साथ बिल्कुल भी मेल नहीं खाती। इस समय के दौरान ही इंडियन ऐक्सप्रैस, तारीख़ 8 अक्तूबर 2018 में छपी हरीश दामोदरन की एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में डीज़ल की कीमत बढाकर 75.45 रुपये प्रति लीटर हुई। यह बढ़ौत्तरी प्रति लीटर 18.56 रुपए अर्थात 32.6 प्रतिशत है। खादों की कीमतों जैसे कि अमोनियम में 30 प्रतिशत, एन. पी. के. खाद में 26-27 प्रतिशत की बढ़ौत्तरी हुई। लागत कीमतों में हुए भारी वृद्धि के होते भी (ष्ट्रष्टक्क)आयोग ने खरीफ की फसलों की कीमतों में बड़ी ही मामूली बढ़ौत्तरी की है।
खरीफ की कुछ फसलों बारे आंकड़े देखो सारणी नं. 2
यह आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि केंद्र सरकार और (ष्ट्रष्टक्क)की भाव निश्चित करने बारे नीयत व नीति पूरी तरह किसान विरोधी है।
निश्चित न्यूनतम समर्थन मूल्य का हश्र
किसानों के साथ अन्याय और ज़ुल्म केवल भाव निश्चित करने में ही नहीं होता बल्कि निश्चित कीमतें भी उसको प्राप्त नहीं होती। मंडी में उसकी भारी फजीहत होती है और उसको अपनी फ़सल कौडियों के भाव बेचनी पड़ती है। निश्चित भाव वाली फसलों में से सिफऱ् गेहूं, कपास और धान की परमल किस्मों के बिना अन्य फसलों के तो निर्धारित भाव मिलने की किसान को आशा ही नहीं होती। परन्तु इन तीनों फसलों की भी मंडी में मिलती कीमतें निर्धारित कीमतों की अपेक्षा कहीं कम होती हैं। मंडी में आढ़ती, शैलर मालिकों, निजी व्यापारियों और खरीद एजेंसियाँ के अधिकारियों का बना लुटेरा गठजोड़ किसानों को बहुत कम कीमतों पर फसलों बेचने के लिए मजबूर कर देता है। तरह-तरह के बहाने बना कर उसको फ़सल बेचने की जगह फ़सल फेंकने के लिए मजबूर किया जाता है। धान की फ़सल में नमी की मात्रा का अधिक होना सब से आसान और बड़ा बहाना है। सरकार अपने हुक्मों के अनुसार धान की फ़सल देरी से बोने के लिए किसानों को मजबूर करती है तथा दूसरी ओर नमी की मात्रा की दर 17 प्रतिशत कर दी गई है जबकि यह पहले 20-22 प्रतिशत तक होती थी। कई सालों से परमल के भाव में नमी के बहाने भारी कटौती की जा रही है। इस साल भी यह कटौती नमी की मात्रा में प्रतिशत वृद्धि के साथ 20-25 प्रतिशत रुपए की कटौती लगती है। इस का अर्थ है कि अगर नमी की मात्रा 17 प्रतिशत की जगह 18 प्रतिशत हो तो 20 से 25 रुपए प्रति क्विंटल किसान को कम मिलेंगे। इसके अतिरिक्त तोल में की जाती धोखाधड़ी और खरीद एजेंसी के इंस्पेक्टरों के नाम पर एक से दो रुपए प्रति बोरा के रूप में की जाती जबरन वसूली भी किसान की कमर तोड़ती है। कपास की खरीद में किसानों के साथ भारी अन्याय हो रहा है। पंजाब के लिए निर्धारित किया गया 5350 रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिलने की जगह उसको 5000 रुपये से भी कम मिल रहा है। हर किसान को औसतन 350 से 400 रुपए कम भाव मिल रहा है।
निर्धारित कीमतों की अपेक्षा कम भाव मिलने का घटनाक्रम भी समूचे भारत में एक सा ही है। उपरोक्त तीन फसलों को छोड़कर बाकी फसलों की किसानों को मिल रही कीमतों में अंतर भी बहुत ज्यादा है। मंडी की शक्तियों उसे दिन दहाड़े लूट लेती हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य व मंडी कीमतों में भारी अंतर  (देखो सारणी नं. 3 इंडियन ऐक्सप्रैस  8 अक्तूबर)।
रकम की अदायगी न होना
किसानों के दुखों व उनकी हो रही लूट कम भाव मिलने पर ही  ख़त्म नहीं होती। इस कौडिय़ों के भाव बेची फ़सल की रकम भी जल्दी नहीं मिलती। कम भाव पर खऱीदी फ़सल की रकम भी उसे सीधी मिलने की जगह आढ़ती के पास जाती है। इसमें से वह अपने उधार दिए पैसों, जिन पर वह अपनी मनमजऱ्ी का सूद वसूल करता है, किसानों से लूट लेता है। बहुत से किसानों को मिलने योग्य रकम बचती ही बहुत कम है, परन्तु जो बचती है, वह भी उसको अनेकों चक्कर मारकर और आढ़ती की मिन्नतें करने के बाद मिलती है। फ़सल की कीमत न मिलने की कहानी गन्ने के मामले में सब से अधिक दुखदायी है। यहाँ किसान का वास्ता राज्य सरकार व बड़ी चीनी मिलों से पड़ता है। इस साल पिड़ाई का नया सीजन आरंभ होने वाला है, परन्तु पिछली रकमें अभी तक भी मिल नहीं रही। अंग्रेज़ी ट्रिब्यून 13 अगस्त 2018 के अनुसार देश में गन्ने का कुल बकाया 17,684 करोड़ रुपए है। इस में पंजाब का हिस्सा 800 करोड़ रुपए, यू. पी. 11,618 करोड़ रुपए, महाराष्ट्र्र 1,158 करोड़ रुपए, गुजरात 601 करोड़ रुपए, कर्नाटक 1,046 करोड़ रुपए का है। इस समय भी पंजाब का बकाया 600 करोड़ रुपए के लगभग है। इसमें लगभग 200 करोड़ रुपए सहकारी मिलों की ओर हैं तथा 400 करोड़ रुपए निजी चीनी मिलों की ओर हैं। इस बारे हुए अनेकों किसान आंदोलनों का न तो पंजाब सरकार पर और न ही निजी मिल मालिकों पर कोई प्रभाव पड़ रहा है। निजी मिल मालिक तो बकाया देने के प्रति बिल्कुल भी गंभीर नहीं हैं। वह दलील दे रहे हैं कि वह केंद्र सरकार की तरफ से निश्चित कीमत 275 रुपए प्रति क्विंटल ही देंगे और बाकी 50 रुपए प्रति क्विंटल पंजाब सरकार ने देने हैं।
यह मिल मालिकों की स्पष्ट ज्यादती है। सभी राज्यों में आज तक गन्ने की भिन्न भिन्न राज्यों की तरफ से स्टेट अडवाईजऱी कीमत (स््रक्क) जो मिल मालिक व राज्य सरकार तथा उसके आधिकारियों की तरफ से संयुक्त बैठक में चीनी उत्पादकों और बिक्री के सभी पक्षों पर विचार करके तय की जातीं हैं चीनी मिलों ने ही देनी होतीं है। परन्तु पंजाब की सात निजी मिलों के मालिक इस बात से पूरी तरह इन्कारी हैं। उनके इस अडिय़ल व मनमाने ज्यादती भरपूर तथा किसान विरोधी व्यवहार का नेतृत्व बुट्टर चीनी मिल का मालिक पूर्व कांग्रेसी मंत्री राणा गुरजीत सिंह कर रहा है। जब भी किसान संघर्ष करते हैं उन्हें वादों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता।
मोदी सरकार का हर नारा भ्रमक
न्यूनतम समर्थन  मूल्य के भ्रम व धोखे भरे नारे के बाद मोदी सरकार ने नयी खरीद नीति का ऐलान किया जो निरी गप्प होने के साथ-साथ किसान हितों के विरोध में भी है। सरकार ने इसे किसान की आमदनी को सुरक्षित करने का सुंदर रूप देने का नाटक रचा है, परन्तु इसका असली उद्देश्य बड़ी कंपनियों और व्यापारियों का मंडी में प्रवेश कराना है, जहाँ वे सभी मंडी खर्चों से मुक्त होकर किसानों से सीधी खरीद कर सकें तथा धीरे धीरे मंडी प्रबंध को अपने कब्ज़े में ले सकें। इस नारे के लबादे में किसानों के समक्ष फ़सल बेचते समय तीन विकल्प (Options) रखे हैं। एक तो मोदी सरकार का न्यूनतम समर्थन मूल्य फार्मूला जिसकी धोखाधड़ी की उपर व्याख्या की गई है। दूसरा विकल्प भाव-अंतर भरपायी फ़ारमूला जिसका कोई सिर-पैर ही नहीं है। जिन फसलों का भाव ही निश्चित नहीं उसके भाव में अंतर का क्या अस्तित्व होगा? अगर वनस्पति या सब्जियाँ के भाव ही निश्चित नहीं तो अंतर किस बात का होगा? तीसरा विकल्प जो मोदी सरकार को दिल से बहुत प्यारा है, वह है किसान अपनी फ़सल बड़े व्यापारी के पास सीधी बेचे और चल रहे मंडी प्रबंध में से बाहर हो जाये।

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