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आर. एस. एस. प्रमुख का दशहरा भाषण असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की कवायद

आर. एस. एस. प्रमुख का दशहरा भाषण असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की कवायद

महीपाल

राष्ट्र्रीय स्वयं सेवक संघ ( आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत की तरफ से दशहरे के अवसर पर, संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय से किये गए संबोधन से यह बात फिर सही सिद्ध हुई है कि ‘संघÓ की नजऱों में संविधान/जनतांत्रिक एवं सैकुलर सरोकारें की कानी कौड़ी बराबर भी कीमत नहीं। केंद्रीय मंत्रियों नितिन गडकरी व के. अलफांसो तथा महाराष्ट्र्र के मुख्य मंत्री देविन्दर फडऩवीस का इस ‘विस्फोटक राजनैतिक भाषणÓ के दौरान दंडवत् खड़े रहना, मोदी सरकार के चलते, संघ की बढ़ी हैसियत, तथा हर स्तर के सरकारी काम-काज में इसके अयोग्य दख़ल की पुष्टि करता है। यह मोदी सरकार ही है जिसने 2014 में गद्दी पर कब्ज़ा करने के बाद, संघ प्रमुख के नागपुर से हर साल दशहरे पर दिए जाने वाले परंपरागत भाषण की, सरकारी स्वामित्व वाले दूरदर्शन से अक्षर-अक्षर प्रसारित करने की भद्दी परंपरा आरंभ की है। मोदी सरकार ने, संघ प्रमुख के ज़हरीले शब्दों को ‘राष्ट्र के नाम संबोधनÓ जैसा दर्जा देने की हिमाकत की है। संघ के असली इरादे देश को एक कट्टर हिंदु राष्ट्र में तब्दील करने की ओर निर्देशित हैं। इस मकसद की पूर्ति के लिए संघ पहले भी बड़ी बार निहत्थे-बेगुनाओं के ख़ून के दरिया बहा चुका है और इसकी यह ख़ूनी साजिशें आज भी बदस्तूर जारी हैं।
आरएसएस की स्थापना 1925 में, बर्तानवी औपनिवेशिक शासकों के इशारे पर हुई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन का नित्य नयी बुलंदियां छूना अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों को कंपकंपी छेड़ रहा था। इसलिए वह भारत में अपने शासन की आयु बढ़ाने की तरकीबें ढूँढ रहे थे। सबसे कारगर तरकीब उनको सूझी, लोगों में फूट डाल कर स्वतंत्रता संग्राम को जर्जर करने की। इस तरकीब को मूर्त रूप देने के लिए ही आरएसएस नाम का यंत्र घड़ा गया। आरएसएस इस बात पर पूरा ‘गर्वÓ करने का हकदार है कि यह अपने निर्मित होने की ज़रूरतों पर खरा उतरा और आज भी साम्राज्यवादियों के हितों की चौकीदारी का अपना कार्य बखूबी निभा रहा है। पूरे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आरएसएस जन साधारण को औपनिवेशिक बर्तानवी हाकिमों का विरोध करने से मना करता रहा और उल्ट मुसलमानों को देश में से खदेडऩे की अपीलें करता रहा। देशभक्तों के खि़लाफ़ गवाहियाँ देने का भी संघ-भाजपा नेताओं का ‘अच्छा-खासाÓ रिकार्ड है। 1947 में औपनिवेशिक हाकिमों की साजिश और भारत के हाकिमों की मिलीभुगत के साथ-साथ दुखदायी देश विभाजन और इसके निष्कर्ष के तौर पर दोनों तरफ हुए कत्ल-ए-आम वाले माहौल में आरएसएस की खूब चली। इस के स्वयं सेवकों ने न केवल निर्दोषों के ख़ून से हाथ रंगे बल्कि अपने विरोधी धर्म वालों के विरुद्ध लोगों के मन में उपजी अस्थाई नफऱत को शाश्वत रूप देने के लिए हर संभव प्रयास किये।
परन्तु आज की स्थिति का भिन्न और ख़तरनाक पक्ष यह है कि इस समय दिल्ली की गद्दी पर संघ के घृणा के कारख़ाने से तैयार हुई भाजपा (पुरानी जनसंघ) का नेता नरेन्दर मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर काबिज़ है। इन मन-माफिक हालात का लाभ लेते हुए आरएसएस ने ‘खूब मन-मानियांÓ की हैं। इस खुले खेल द्वारा हुई तात्कालिक तबाही तो दर्दनाक है ही, भविष्य में भी इसके बड़े ख़तरनाक निष्कर्ष निकलने तय हैं। मोदी सरकार की कायमी के तुरंत बाद औपनिवेशिक हाकिमों की तरफ से ईजाद किये और आजमाए हुए ‘फूट डालो और राज करोÓ के नुस्ख़े पर आगे बढ़ते हुए संघी गिरोहों ने सब से पहले ”घर वापसीÓÓ का शिगूफा छोड़ा। इसके अधीन हिंदु धर्म को छोड़ कर अन्य धर्मों, विशेष कर ईसाई तथा इस्लाम धर्म को अपनाने वालों को हिंदु धर्म में वापस शामिल करने का आक्रामक अभियान चलाया गया। इस मुहिम का छिपा हुआ और वास्तविक उद्देश्य ईसाई और मुस्लिम धर्म को मानने वालों के खि़लाफ़ हिंदु धर्म को मानने वाले जनसाधारण के मन में नफऱत पैदा करना था। यह तथ्य जान-बूझ कर आखों से ओझल कर दिए गए कि लोगों ने किन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए एवं किन हालात में धर्म परिवर्तन किया था। अनेकों स्थान पर इस आग भड़काऊ प्रचार के झाँसे में आए लोगों का टकराव भी हुआ। देश के सभी भागों में गिरजाघरों पर योजनाबद्ध हमले किये गए। अंत में चारों तरफ से होते विरोध के चलते और धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों से उचित प्रतिक्रिया की कमी के कारण संघी संगठनों ने इस मुहिम से एक बारगी किनारा कर लिया। परन्तु इस विषैले अभियान ने लोगों के मन-मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव न डाला हो यह सोचना भी भारी भूल होगी।
इसके बाद संघ के शातिर रणनीतीकारों ने ”लव जेहादÓÓ नाम की एक नयी क्लेश युक्ति ईजाद कर ली। अफ़वाहें फैला कर दंगे करवाने के माहिर संघी कार्यकत्ताओं ने यह दुष्प्रचार किया कि मुसलमान अच्छा भोजन खिला कर अपने लड़कों को शारीरिक तौर पर ताकतवर बनाते हैं। आगे यह लड़के इनकी तरफ आकर्षित होने वाली हिंदु परिवारों की लड़कियों को फुसलाकर उन लड़कियों के साथ अंतर धार्मिक विवाह कर लेते हैं। जबकि यह एक जीता-जागता सत्य है कि अंतर धार्मिक शादियों के मामलों में हिंदु और मुसलमान दोनों धर्मों के परिवारों के वृद्ध एक ही सी दकियानूसी पहुँच पर चलते आ रहे हैं। यह भी स्थापित सत्य है कि भारतीय समाज में नौजवान लड़के-लड़कियों की तरफ से अपनी इच्छा-मजऱ्ी के साथ अपने ही धर्म या बिरादरी में भी विवाह कराने का रुझान अभी भी ‘आटे में नमकÓ के बराबर ही है। सांप्रदायिक गिरोहों ने यह दुष्प्रचार इस तथ्य से भलि-भांति परिचित होने के बावजूद भी इसलिए शुरु किया क्योंकि इससे सांप्रदायिक नफऱत का प्रसार करने की उनकी भद्दी साजिश सिरे चढ़ती है। संघी प्रचारक तो इस मामले में यहाँ तक गिर गए कि उन्होंने ऐलान करने शुरू कर दिए कि हिंदुओं के लड़के भी इसी तरह से ‘सेहतमंदÓ बन कर मुसलमानों की बेटियाँ वरगलायें। गंदी मानसिकता के मालिक संघियों के ही बेटियों के बारे ऐसे विचार हो सकते हैं। प्रेम विवाह जैसे दिलो-दिमाग को ताजगी से भर देने वाले जज़बे को सांप्रदायिक और साजि़शी रंग देने के बारे में कोई संवेदनशील मनुष्य तो सोच भी नहीं सकता। इस घटिया मुहिम के बुरे नतीजों का एक भद्दा उदाहरण स्मरण करें। राजस्थान के राजसुमन्द में इस नफरती मुहिम के दुष्प्रभावों से चालित होकर, शंभू लाल रेगर नाम के एक जनूनी ने अफऱाज़ुल नाम के एक गरीब मुसलमान मज़दूर को पहले कुलहाड़े के साथ काटा, फिर उस की मुर्दा देह पर मिट्टी का तेल डाल कर जला दिया। इस समस्त कुकर्म की शंभू लाल ने किसी और से वीडियो बनवा कर यह ऐलान किया कि, ”हिंदु औरतों के साथ सम्बन्ध रखने वाले हरेक मुसलमान के साथ इस तरह ही किया जायेगा।ÓÓ यह वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत बड़े स्तर पर वायरल हुई या की गई। यहाँ यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि मौत के बाद मुसलमानों का दाह संस्कार नहीं किया जाता बल्कि उन्हें दफनाया जाता है और इस तथ्य से शंभू लाल और उस के सरपरस्त संघी अवगत न हों यह बात विश्वास योग्य नहीं। बाद में पता लगा कि जिसका कत्ल हुआ है वह अफऱाज़ुल तो बंगाल से आया मुश्किल के साथ गुज़ारा करने वाला दैनिक वेतन भोगी मजदूर था, जिस के पास प्रेम करने का ना समय था ना साधन। मुसलमान होने के कारण ही वहशी रूप से कत्ल कर दिया गया, बेचारा गरीब। मुसीबतें झेलने के लिए पीछे बच गए उसके परिवार के पालन पोषण के लिए प्रयत्न करने की जगह संघ के नज़दीकियों की तरफ से निर्दयी कातिल शंभू लाल रेगर की कानूनी प्रक्रिया में मदद करने के लिए रकम इक_ी की गई। यह मुहिम जाहिरा तौर पर बेशक फि़लहाल स्थागित कर दी गई है परन्तु अंदरखाते ज़ोर-शोर से जारी है।
देश के आवाम, ख़ास कर कामगार श्रेणी को हमेशा के लिए धर्म के आधार पर बाँट देने की साजिश का अगला दांव आरएसएस की तरफ से खाने-पीने की विभिन्नताओं के नाम पर खेला गया और मुख्य हथियार बनाया गया गाय ”माताÓÓ को। क्योंकि गाय हिंदु धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए पूज्य है और मुसलमान गाय मांस (बीफ) का भोजन के रूप में सेवन करते हैं इसलिए मुसलमान हिंदु धर्म के दुश्मन हैं और इस गुनाह के लिए इनको या तो निर्दयता से मार डालो या भारतवर्ष से जानवरों की तरह खदेड़ दो। यह था (है) मुस्लिम विरोधी दुष्प्रचार का मूल मंत्र। इस आधार पर जगह-जगह, विशेष कर उत्तरी और मध्य भारत के राज्यों में गाय मांस के सेवन या व्यापार के नाम पर सांप्रदायिक गुंडा गिरोहों की तरफ से मुसलमानों पर जानलेवा हमले आम बात हो गई। अखलाक, जुनैद, पहलू खान आदि कितने ही निर्दोष इन सांप्रदायिक टोलों की तरफ से सार्वजनिक स्थानों पर काट कर बोटी-बोटी कर दिए गए या पीट-पीट कर मार डाले गए। यह ”भीड़ इंसाफ़ÓÓ आज भी जारी है। परन्तु कहते हैं कि खून सिर चढ़ कर बोलता है और सच्चाई आधारित तथ्यों की सदा के लिए परदापोशी नहीं की जा सकती। सभी हिंदु धर्म को मानने वाले भोजन के तौर पर गाय मांस का सेवन नहीं करते यह बात सत्य नहीं। संसार के अनेकों देशों की तरह भारत में भी उत्तर-पूर्व और दक्षिणी राज्यों में हिंदु धर्म को मानने वाले लाखों परिवार गौमांस का सेवन करते हैं। आरएसएस की बग़लबच्चा भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर उत्तर पूर्व के एक राज्य से जीत कर गृह राज्य मंत्री बना ‘सज्जनÓ सार्वजनिक मंचों पर बहुत बार गाय मांस का भोजन के तौर पर सेवन करने की बात कबूल कर चुका है। पिछले दिनों जब गोआ में खाने के लिए गाय मांस की कमी का ‘संकटÓ खड़ा हुआ तो वहां सौ पापड़ बेल कर कायम हुई भाजपा की सरकार के एक मंत्री ने बयान देते हुए माँग की कि केंद्र सरकार हमारे खाने के लिए विदेशों से मंगवा कर गाय मांस का इंतज़ाम करे। दक्षिणी राज्य केरल के पिछले विधान सभा के चुनाव अभियान दौरान भाजपा नेता चुनाव सभाओं में यह राग अलापते रहे कि हमें किसी के गाय मांस खाने पर कोई ऐतराज़ नहीं। वैसे बात तो यह भी पूछने योग्य है कि भारत दौरे पर आने वाले विदेशी राजनीतिज्ञ और कूटनीतक, गाय मांस जिन की रोज़मर्रा की ख़ुराक का पक्का भाग है, जब यहाँ आकर बीफ की माँग करते हैं तो क्या उनको बीफ से जवाब दे दिया जाता है? एक ओर क्रूर तथ्य विचारना भी बड़ा ज़रूरी है। भारत में अनेकों बड़े कारोबारी विदेशों में खाने के लिए गाय मांस या गाय वंश के चमड़े से बनीं आम प्रयोग की चीजें भेज कर अरबों डालरों की कमाई कर रहे हैं। इन कारोबारिओं में से बहुत बड़ी संख्या हिंदु धर्म को मानने वाले हैं और कई तो भाजपा के साथ भी जुड़े हुए हैं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि भाजपा इस समय राजनैतिक चंदा प्राप्त करने वाली सबसे बड़ी पार्टी है और इन चंदे में बीफ कारोबारियों द्वारा दान दी गई राशि का भी बहुत बड़ा ‘योगदानÓ है। फिर मुसलमानों के खि़लाफ़ इतनी हाय तौबा क्यों मचायी जा रही है? क्योंकि आरएसएस का असली निशाना देश में सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुसलमानों को नफऱत के पात्र बना कर पेश किया जाना अति ज़रूरी है और गाय मांस का सेवन करने का इल्ज़ाम लगा कर आस्थावान हिंदुओं को सहज ही गुमराह किया जा सकता है। कैसा दंभी चरित्र है आरएसएस का? बीफ कारोबारिओं से मोटे चंदे लेने और उनको अपनी पालतू राजनीतिक पार्टी भाजपा में उच्च पद देकर सम्मानित करना। उत्तर-पूर्व, गोआ और दक्षिणी प्रांतों में बीफ खाने खिलाने की खुली वकालत करनी, विदेशी मेहमानों के आगे धड़ल्ले से उनका प्रिय भोजन परोसने से कतई गुरेज़ न करना। परन्तु उत्तरी और केंद्रीय भारत में गाय मांस खाने के नाम पर सांप्रदायिक विभाजन तीव्र करने के लिए गरीब मुसलमानों को पीट-पीट कर मार देना। यह दोगलापन न केवल नंगा किये जाने की ज़रूरत है बल्कि इस के खि़लाफ़ अविचल ़ संग्रामों की भी अत्याधिक ज़रूरत है।
आजकल देश भर में अपराधिक पृष्टभूमि वाले संघी कार्यकर्ता हाथों में हथियार ले कर यह ”यकीनीÓÓ बनाने में लगे हुए हैं कि मुसलमान सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ अदा न कर सकें। राम लीला, दशहरा, पालकियाँ, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, महापुरूषों के जन्म दिवस को समर्पित समारोह सार्वजनिक रूप में बेरोक टोक होते हैं। परन्तु मुसलमान घरों से बाहर नमाज़ अदा न करें। यह है संघियों के अखंड भारत का स्वरूप।
इस अवसर का लाभ लेते आरएसएस ने स्कूली पाठक्रमों के साथ बहुत ही खिलवाड़ किया है। प्रतिक्रियावादी विचारों से
ठसाठस भरे दिमागों और गंवार मानसिकता के मालिक संघी कार्यकर्ता (स्वयं सेवक) पाठयक्रमों में संशोधन करने वाली समितियों के प्रमुख स्थापित कर दिए गए। यह पहले ही संघ हैड क्वार्टर से पाठ्य पुस्तकों में संघ की मरणासन्न विचारधारा के मुताबिक सांप्रदायिक, अवैज्ञानिक, प्रतिक्रियावादी और जनवाद विरोधी धारणाओं जोडऩे के दिशा निर्देश ले कर आए थे और इसी अनुसार ही इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अमल भी किया।
संघियों ने इन चार-साढ़े चार सालों में विरोधियों की ज़ुबानबन्दी के लिए हर घटिया हथियार का इस्तेमाल किया। धमकियां, गालीगलौज, सोशल मीडिया के द्वारा गाली-गलौज मारपीट, से लेकर बात कत्लों तक जा पहुँची। इस अभियान का सब से बड़ा लक्ष्य बने व्यापक प्रगतिवादी लहर के उच्च किरदारों वाले ज़हीन नेता और कार्यकर्ता। संघियों की तरफ से फैलाये जाते अंधकारवाद से लोगों को चौकस करना इन तर्कवादी, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं का इकलौता कसूर है। परन्तु हमारे समय के यह ‘बरूनोÓ (15वीं शताब्दी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक, जिन्हें धरती सूरज के चारों और घूमती है, की खोज करने पर चर्च ने जिंदा जलाकर मृत्युदंड दिया था) अपनी ऐतिहासिक जि़म्मेदारी पर डटे रहे और आज भी डटे हुए हैं।
लोकतांत्रिक और प्रगतिशील लहर के इन योद्धाओं को अपने उद्देश्य पूर्ति की राह की सबसे बड़ा बाधा समझ कर अलग-अलग नामों के नीचे काम करती संघी सेनाओं के कातिलों ने प्रोफ़ैसर एम एम कलबुरगी, नरेंदर दभोलकर, गोबिंद पंसारे और गोरी लंकेश जैसे बुद्धिजीवियों का कत्ल कर दिया। अनेकों ऐसे योद्धाओं के सिर पर अभी भी मौत का साया मंडरा रहा है परन्तु वह तन्मयता के साथ समाज के प्रति अपनी जि़म्मेदारी बेखौफ निभा रहे हैं। संघी कार्यकर्ता इनके पीछे घात लगाये घूम रहे हैं। इसी दौरान अनेकों प्रतिष्ठित लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों ने इस मुहिम के विरुद्ध इनाम इकराम ठुकराने (अवार्ड वापसी) का दौर चला दिया। ”बौनेÓÓ संघी विचारकों ने बौखलाहट में आकर इन महान शख्सियतों की शान में गुस्ताख़ी करनी शुरू कर दी। परन्तु चहुँ ओर उठे विरोध के बाद संघ परिवार ने ज़ुबानबंदी के अलग ढंग तरीके ढूँढ लिए। पिछले दिनों दर्जनों बुद्धिजीवियों, लोकतांत्रिक अधिकार कार्यक्रत्र्ताओं को ख़तरनाक कानूनी धाराओं  के अधीन पहले गिरफ़्तार कर लिया गया और बाद में सर्वोच्च अदालत के दख़ल के बाद उन्हीं के घरों में नजऱबंद कर दिया गया। यह नजऱबंदी अभी भी जारी है। संघ प्रमुख ने नागपुर से अपने संबोधन में इनको एक बार फिर अरबन नक्सली (शहरी नक्सली) कह कर इनकी भत्र्सना की है। वास्तव में यह संघ की, अपने विचारधारक विरोधियों की आम लोगों के मन में नकारात्मक तस्वीर स्थापित करने की नये शब्दों वाली पुरानी तरकीब है। इस से पहले संघ के नफरती कामों का विरोध करने वालों को राष्ट्र्र द्रोही और पाकिस्तान के एजेंट कह कर लोगों की घृणा का पात्र बनाने के भद्दे प्रयत्न किये जाते रहे थे और आज भी किये जाते हैं। संघ की हिदायतों पर हूबहू अमल करते हुए मोदी सरकार ने, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कायम हुए और सीमित हद तक बढ़ी-फूली जनतांत्रिक मान्यताओं का भी जी भर कर ह्रास किया है। इस अरसे के दौरान स्थापित लोकतांत्रिक मूल्यों, अदालती फ़ैसलों और कानूनों को छींके टाँग कर अल्पसंख्यक सरकारें को बलात् बहुमत दिलाया गया। नाजायज पैसे द्वारा चुने हुए नुमायंदों की सरे बाज़ार खरीद फऱोख्त की गई। गोआ और मनीपुर इस अनैतिक दृश्य की उत्कृष्ट मिसालें हैं।
औरत वोटरों को लुभाने और परिवारों में गहरी पैठ बनाने के लिए भाजपा ”महिलाओं के सम्मान में-भाजपा मैदान मेंÓÓ, ”बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओÓÓ और ”मेरी बेटी मेरा अभिमानÓÓ जैसे भ्रामक नारे लगाती है। भाजपा के पर्दे में वास्तव में अपनी मजऱ्ी अनुसार शासन चला रहा आरएसएस जिस भुला दी गई मनुवादी वर्णव्यवस्था जैसी प्रतिक्रियावादी प्रणालियों की पुन: स्थापति के लिए छटपटा रहा है उन में नारी समानता और सम्मान के लिए कोई गुंजाईश ही नहीं। एक तरफ़ आरएसएस का मज़बूत होना और साथ ही औरतें खि़लाफ़ घृणित अपराधों का बढऩा एक दूसरे साथ जुड़े हुए घटनाक्रम हैं। छोटे-बड़े भाजपा नेताओं की तरफ से औरतों के क्रूर शारीरिक-भावनात्मक शोषण के मशहूर हो रहे मामले इस तथ्य की मुँह बोलती तस्वीर हैं। केरल के सबरीमाला मंदिर के साथ जुड़े विवाद संबंधी देश की सर्वोच्च अदालत का औरतों के हक में आया फैसला संघर्ष के ज़ोर पर उल्टा देने का संघ प्रमुख का दशहरा भाषण में दिया गया न्योता संघ परिवार के औरतें के प्रति नज़रिए के बारे में कोई शंका नहीं रहने देता।
आरएसएस प्रमुख के दशहरा भाषण की देश की काफ़ी सारी बहुभाषाई अखबारों ने चुनावी भाषण कह कर खिल्ली उड़ायी है। वास्तव में इस भाषण का तत्काल उद्देश्य केंद्र की मोदी सरकार की हर फ्रंट और घोर असफलता से लोगों का ध्यान बांटना और 2019 के आम चुनाव में गरीबी, महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कुपोषण आदि असली मुद्दों की जगह धार्मिक और भावनात्मक मुद्दों के आधार पर भाजपा को पुन: जितवाने का एक भद्दा प्रयास है। आर. एस. एस. का अंतिम निशाना कट्टर हिंदु राष्ट्र्र की कायमी है। वर्तमान दौर में लोकतांत्रिक आंदोलन के सम्मुख सब से बड़ी चुनौती आरएसएस के इन ख़तरनाक मंसूबों को हार कैसे  देनी है।
इस दिशा की ओर आगे बढ़ते हुये अल्पसंख्यकों के फिरकापरस्त संगठनों के विरुद्ध भी बराबर के तीखे और सैद्धांतिक पैंतरे की ज़रूरत है। आवाम को यह समझाना अति ज़रूरी है कि यह दोनों किस्म के फिरकापरस्त देखने को बेशक एक दूसरे के विरोधी लगते हैं परन्तु इनकी नफरती गतिविधिओं एक दूसरे की मददगार होती हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियां जोड़ों-तोड़ों के साथ भाजपा को हरा कर फिऱकापरस्ती को हार देने का भ्रम फैला रही हैं। परन्तु हिंदु फिरकापरस्तों के खि़लाफ़ लड़ते समय हमारी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम सांप्रदायिक नारों के झाँसों में आकर गुमराह होने वाले हिंदु भाईचारे के लोगों को कितना प्रभावित कर सकते हैं। हमें उन्हें यह शाश्वत सत्य समझाने की ज़रूरत है कि आरएसएस किसी फिरके अर्थात हिंदुओं के हितों की चौकीदारी के लिए नहीं बल्कि लुटेरे वर्ग (कॉर्पोरेट घरानों) के हितों की चौकीदारी के लिए सारी कार्यवाहियां करता है। 

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